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३२८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
करना है । जो धर्म की रक्षा करता है, वही वस्तुतः क्षत्रिय है । ऐसे प्रसंग पर मैं न आता तो मेरी माता को भी कलंक लगता।"
युधिष्ठिर-"आपका कथन यथार्थ है। आपको ऐसा ही विचार रखना चाहिए।"
युधिष्ठिर ने सहदेव को बुलाकर कहा- "देखो यह रुक्म आए हैं । इनका और इनकी सेना का सत्कार करो और इनके स्थानादि का यथोचित प्रबन्ध करो।"
__यह सुनकर रुक्म ने कहा- "स्वागत-सत्कार से पहले एक बात का स्पष्टीकरण हो जाना चाहिए।"
युधिष्ठिर-"अगर कोई बात स्पष्टीकरण करने योग्य हो तो उसका स्पष्टीकरण अवश्य हो जाए।"
रुक्म-'मेरे हाथ में जो धनुष है, उसका नाम 'विजय' है । संसार में तीन प्रसिद्ध धनुष हैं-(१) गाण्डीव, (२) सारंग और (३) विजय । सारंग कृष्ण के पास है मगर उन्होंने निरस्त्र रहने का निर्णय किया है । रहा गाण्डीव वह विजय धनुष की समानता नहीं कर सकता। यह अकेला ही सारी कौरव सेना पर विजय पर सकता है। कौरवों पर विजय पाने के लिए आप में से किसी को कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। इस विजय की सहायता से मैं अकेला ही आपको विजयी बना सकता हूँ। इसके लिए मेरे कथनानुसार अर्जुन यदि एक कार्य करें तो मैं अपना समस्त बल आपको दे सकता हूँ।"
अर्जुन बोला-"पहले आप कार्य बतलाइए । कार्य को समझे बिना मैं करने की हाँ नहीं भर सकता।"
रुक्म-“कार्य यही है कि तुम मेरे पैर पर हाथ रखकर कह दो कि मैं भयभीत हूँ और तुम्हारी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा करो। बस इतना करने से मेरा समस्त बल तुम्हारे पक्ष में हो जाएगा।"
भीम उस समय नहीं मौजूद थे । रुक्म की बात सुनकर अर्जुन के नेत्र लाल हो गए । मगर युधिष्ठिर ने उसे रोककर रुक्म से कहा- "अभी तो आप आए हैं । थोड़ी देर विश्राम कीजिए। इस सम्बन्ध में फिर विचार किया जाएगा।"
रुक्म- “ऐसा नहीं होगा। इसका निर्णय तो अभी हो जाना चाहिए । बोलो, अर्जुन ! तुम क्या कहते हो ?
अर्जुन-"मुझे आश्चर्य होता है कि आपके मन में ऐसे विचार क्यों आए ? मैंने कृष्ण के चरणों को हाथ लगाया है। मेरी यह प्रतिज्ञा है कि कृष्ण के सिवाय मैं किसी अन्य के चरणों को हाथ नहीं लगाऊंगा। आप मुझ से झूठमूठ कहलाना चाहें मैं भयभीत हैं। भला मैं कब भयभीत हुआ हूँ ? इसके अतिरिक्त आपके लिए भी यह शोभनीय नहीं है कि आप स्वयं किसी को अपनी शरण में बुलावें। मैंने सिर्फ कृष्ण की शरण ली है, इसलिए दूसरे किसी की शरण नहीं ले सकता । आप आए हैं
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