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________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८७ यों सोचकर वे दोनों पहाड़ से नीचे गिरने जा रहे थे, तभी एक पवित्रता की प्रतिमूर्ति स्वपरकल्याणदक्ष जैन मुनिराज वहाँ दृष्टिगोचर हुए। उन्होंने दोनों को हाथ के संकेत से रोका, उनके निकट पहुंचे और पूछा- "वत्स तुम ! दोनों इस अमूल्य मानवजीवन को क्यों नष्ट कर रहे हो?" वे कहने लगे-"भगवन् ! इस दुनिया में अब हमारा कोई स्थान नहीं है। इसलिए हमें अब जीकर क्या करना है ? समाज में हमें सब दुर-दुराते हैं, हमें नगर से बाहर निकाल दिया। वन में रहते थे, वहां से भी खदेड़ दिया। अब हम कहाँ जाएँ ?" मुनिवर ने कहा- "वत्स ! घबराओ मत ! हमारा धर्म तुम्हें शरण देगा । तुम अपने जीवन को तप, संयम से उज्ज्वल बनाओ। मैं तुम्हें अपने पास स्थान दूंगा, तुम उच्च साधना करके अपने जीवन का कल्याण कर सकोगे।" दोनों बहुत प्रसन्न हुए । दोनों चाण्डाल-पुत्र उन मुनिराज के पास मुनिधर्म में दीक्षित हो गये । महाव्रत तप-संयम की आराधना की। अनेक लब्धियाँ प्राप्त की और स्वपरकल्याण करते हुए विचरण करने लगे। यह है समाज में घृणित एवं अस्पृश्य शूद्र माने जाने वालों का जैनधर्म में प्रवेश और आत्म-कल्याण का ज्वलन्त उदाहरण ! इसी प्रकार हरिशकेबल चाण्डाल को कौन नहीं जानता? हरिकेशबल चाण्डालकुल में जन्मे थे । एक तो चाण्डालकुल में जन्म, फिर उनका शरीर कालाकलूट, कुरूप और बेडौल ! इसके अतिरिक्त वे अंट-शंट एवं कठोर बोलते थे, चाहे जिससे लड़ते-झगड़ते थे। घर में, परिवार में, अडोस-पड़ोस में कोई उन्हें चाहता नहीं था । सभी उसका तिरस्कार करते थे। तिरस्कृत होकर वे मामा के यहाँ रहने लगे । मामा के यहाँ भी कोई उनका सत्कार नहीं करता था, न प्रेम से बुलाता था। एक बार किसी रिश्तेदार के यहाँ भोज था। उसमें वे भोजन करने गये थे। हमजोली बच्चे उनका मजाक उड़ा रहे थे । तभी एक दुमुही निकली। उसे देख सब लोग पूजने और आदर करने लगे । कुछ ही देर बाद एक सर्प निकला, उसे देखते ही सब लड़के-लकड़ियाँ लेकर उसे मारने दौड़े, पीटने लगे । वह बेचारा किसी तरह जान बचाकर भागा । इन दोनों का रंग-आकृति एक-सी देख हरिकेशबल विचार करने लगे -'पहले की पूजा की और दूसरे को मारा-पीटा यह अन्तर क्यों ?' पूछा तो लोगों ने कहा- "दुमुही और सर्प एक ही जाति के, एक-से रंगरूप के होते हुए भी पहले का आदर इसलिए किया गया कि उसकी जबान में विष न था। दूसरे का अनादर इसलिए किया गया कि उसकी जबान में विष था।" बस, उनके दिमाग में विचार की बिजली कौंधी'मेरे भी तो जबान में विष है, मैं भी लोगों को कड़वा एवं कठोर वचन कह देता हूँ। इसीलिए लोग मेरा सर्वत्र अनादर करते हैं। अगर मैं अपनी जबान पर संयम कर लू, मधुर बोलू तो चाहे मेरा चेहरा कैसा भी हो, लोग आदर करेंगे।' वह प्रतिबोध पाकर वहाँ से चल पड़ा । स्वयमेव जैनसाधु का जीवन स्वीकार कर लिया। भगवान महावीर के धर्मसंघ में हरिकेशबल का महत्त्वपूर्ण स्थान है । आगम के पन्नों पर उनकी तप-संयम से ओतप्रोत जीवनगाथाएँ अंकित की गई हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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