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२८६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
मोक्ष : सबके लिए-कई धर्म वाले कहते हैं- "हमारे धर्म में आओगे, तभी मुक्ति होगी, नहीं तो नरक में जाना पड़ेगा।” परन्तु जिनोपदिष्ट धर्म किसी से यों नहीं कहता कि इस धर्म में, इस वेश में, इस जाति में, इस तीर्थंकर, पैगम्बर या अवतार की शरण में आने पर ही मुक्ति होगी। स्त्री को, गृहस्थ को, नपुंसक को, हमारे धर्म में मुक्ति नहीं होती। दूसरे धर्म, देश, वेश, जाति के लोगों की मुक्ति नहीं होती। दूसरे अवतार की शरण में जाने पर भी मुक्ति नहीं होती है । परन्तु जैनधर्म यह नहीं कहता कि मेरे धर्म में, मेरे देश या या वेश में, मेरी जाति में, मेरे तीर्थंकरों की शरण में आने पर ही मुक्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। किसी भी धर्म, वेश, देश, जाति का व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर सकता है। कोई भी स्त्री, पुरुष, नपुंसक हो, गृहस्थवेशी हो या साधुवेशी, स्वयंबुद्ध हो या प्रत्येकबुद्ध, मुक्ति प्राप्त कर सकता है, बशर्ते कि रत्नत्रय की साधना करे । जैनशास्त्रों में १५ प्रकार से सिद्ध-मुक्त होने का स्पष्ट उल्लेख है-(१) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध, (३) तीर्थंकरसिद्ध (४) अतीर्थंकरसिद्ध (५) स्वयंबुद्ध सिद्ध, (६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, (७) बुद्धबोधित सिद्ध, (८) स्वलिंग सिद्ध, (8) अन्यलिंग सिद्ध, (१०) गृहीलिंग सिद्ध, (११) स्त्रीलिंग सिद्ध, (१२) पुरुषलिंग सिद्ध (१३) नपुंसकलिंग सिद्ध, (१४) एक सिद्ध (१५) अनेक सिद्ध। सिद्ध का अर्थ सर्वकर्मों से मुक्त--मोक्ष-प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि जिनोपदिष्ट धर्म कितना उदार है ? उसने मुक्ति के द्वार सबके लिए खोल रखे हैं । पतितों या शूद्रों को भी प्रवेश
इतना ही नहीं, जिनको एक दिन समाज पतित और शूद्र कहता था, जिनको कहीं भी और कोई भी धर्म या धर्मनायक स्थान नहीं देता था, जिन्हें अपने उद्धार या मोक्ष की कोई आशा नहीं थी, जिनोपदिष्ट धर्म ने उन्हें अपने धर्म में स्थान दिया है; इतना ही नहीं, उन्हें मुनि-दीक्षा भी दी है, और मुक्ति-पद भी प्राप्त कराया है ।
चित्त और सम्भूति चाण्डाल-पुत्र थे । तथाकथित समाज के त्रास से परेशान हो उठे थे। वे नमुचि प्रधान से संगीत कला सीखकर उसमें दक्ष हो गये थे, कण्ठ भी सुरीला था। जब वे सुरीले कण्ठ से मधुर लय और तान के साथ गाते तो जनता मुग्ध हो जाती थी। जनता का उन दोनों भाइयों के प्रति आकर्षण देखकर नगर के कुछ प्रमुख लोगों ने विरोध उठाया और इन पर समाज को धर्मभ्रष्ट करने का आरोप लगाकर राजाज्ञा द्वारा नगर से निष्कासित कर दिया। दोनों अब जंगल में रहते, वहीं मधुर संगीत गाते और मस्त रहते थे। वहाँ भी उनके प्रति लोगों का आकर्षण कम नहीं था, मगर जात्यभियानी धर्मध्वजी लोगों ने उन्हें वहाँ भी टिकने नहीं दिया। जीवन से निराश होकर उन्होंने पर्वत से गिरकर आत्महत्या करने का विचार किया। सोचा- 'समाज में हमारेलिए कोई स्थान ही नहीं है, तब हमारा जीना बेकार है।'
१. समवायांग सूत्र तथा तत्त्वार्थ सूत्र
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