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________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८५ इन सबका वर्गीकरण करके इनके धर्माचरण में भी विभिन्न श्रेणी के अनुरूप अन्तर बताया गया है, जो कि स्वाभाविक है । सभी के लिए महाव्रत आचरणीय नहीं होते, न ही सभी के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत आचरणीय होते हैं । मार्गानुसारी के ३५ गुणों का भी वही व्यक्ति आचरण करता या कर सकता है, जो धर्म-मार्ग पर नैतिकता के आधार पर आना चाहता हो। मैं पहले बता चुका हूँ कि जिनोपदिष्ट धर्म के द्वारा सभी वर्ण, वर्ग, जाति, देश, वेश, संस्कृति, राष्ट्र एवं भाषा आदि के लोगों के लिए खुले हैं । अपनी-अपनी योग्यतानुसार सभी व्यक्ति इसमें स्थान पा सकते हैं । जैनधर्म जन्मना जातिवाद को, छुआछूत को, मानव मानव में भेदभाव को नहीं मानता; वह इन ऊपरी आवरणों को चीरकर व्यक्ति की आत्मा को टटोलता है। यहाँ तक कि पापी से पापी व्यक्ति को भी जैनधर्म में स्थान है, और एक पवित्र धर्मात्मा को भी है। पापात्मा व्यक्ति भी अगर चाहे तो अपनी आत्म-शक्तियों को धर्माचरण द्वारा प्रगट कर सकता है, उच्च कोटि का धर्मात्मा, महात्मा और परमात्मा तक बन सकता है । कई स्थूलदृष्टि वाले महानुभाव जैनधर्म के सिद्धान्तों को न समझकर कह देते हैं कि यह तो बनियों का धर्म है, यह वैश्यों के लिए ही आचरणीय है, किन्तु ऐसी बात नहीं है । जैनधर्म न तो एकान्ततः वैश्यों का धर्म रहा है, और न ही एकान्ततः क्षत्रियों या ब्राह्मणों का, न ही शूद्रों का । इसमें चारों ही वर्गों के व्यक्ति साधु बने हैं, श्रावक भी बने हैं। सभी ने अपनी-अपनी भूमिकानुरूप इस धर्म का आचरण करके अपना कल्याण किया है। अनेक क्षत्रिय राजाओं, राजकुमारों और क्षत्रिय-पुत्रों ने इस धर्म की मुनिदीक्षा ली है, अनेक राजरानियों, क्षत्रियाणियों ने साध्वी बनकर स्वपरकल्याण साधा है । अनेक ब्राह्मणों ने इस धर्म में दीक्षित होकर स्वपरकल्याण-साधना की है । भगवान महावीर के धर्म-तीर्थ संघ के इन्द्रभूति गौतम आदि ११ गणधर ब्राह्मण ही थे । उन्होंने महावीर के धर्मसंघ का संचालन और संघ व्यवस्था सुन्दर ढंग से की । जम्बूकुमार. धन्ना, शालिभद्र आदि अनेक वैश्यपुत्रों ने जैनधर्म की मुनिदीक्षा लेकर स्वपरकल्याण-साधना की । सम्प्रति राजा, खारवेल, कुमारपाल आदि राजाओं ने जिनोपदिष्ट धर्म अंगीकर कर श्रावकधर्म के व्रतों का यावज्जीवन पालन किया था । अर्जुन मालाकार, हरिकेशबल चाण्डाल, चिलातीपुत्र आदि अनेक शूद्रवर्णीय महानुभावों ने साधुधर्म का आचरणा करके अपना और दूसरों का कल्याण किया । इसी प्रकार काली, महाकाली, कृष्णा, महाकृष्णा, आदि राजरानियों ने भगवान महावीर के धर्मशासन-काल में साधुधर्म का आचरण करके मुक्ति प्राप्त की। सद्दालपुत्र कुम्भकार आदि शूद्रजातीय श्रावक भी उस युग में हुए हैं; तो कई उपासक आनन्द जैसे कई वैश्य श्रमणोपासक भी हुए हैं। क्षत्रिय और ब्राह्मण भी कई श्रमणोपासक हुए हैं, जिन्होंने अपना कल्याण श्रावकधर्म का आचरण करके किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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