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________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : ६ है ? यह देखना चाहिए । तीन दृष्टियाँ हैं-(१) कार्य के पीछे कोई स्वार्थ है, लोभ है, ठगने की दृष्टि है, या सुघड़ कहलाने की दृष्टि है, प्रशंसा और प्रसिद्धि प्राप्त करने की कामना है। (२) अथवा वह दान, पुण्य या परोपकार का कार्य है, पर उसके पीछे नामनाकामना या स्वर्गादि की लालसा है, सुघड़ या सुसंस्कारी कहलाने की भावना है। (३) अथवा उस सत्कार्य के पीछे किसी प्रकार की कामना, लोभ, भय, स्वार्थ, या प्रसिद्धि की लिप्सा नहीं है । निःस्वार्थ भाव से या तो अपनी आत्म-शुद्धि की भावना है, कर्मनिर्जरा की दृष्टि है या समझ-बूझकर निःस्वार्थ-निष्काम भाव से दूसरों की सेवा, परोपकार या परमार्थ की भावना है । इन तीनों दृष्टियों से कार्य कलात्मक ढंग से लोग करते हैं। कई लोग पहली दृष्टि से कार्य करते है, कई लोग दूसरी दृष्टि से और कई लोग तीसरी दृष्टि से करते हैं । अब हम इन तीनों कार्यों का विश्लेषण करते हैं कला का उपयोग : चोरी आदि की दृष्टि से प्रथम दृष्टि से कार्य करने वाला भी अपने कार्य को कला की संज्ञा देता है, साहित्यकार एवं राजनीतिज्ञ भी उसे कला कहते हैं-चौर्यकला, राजनैतिक-कला, ठगबाजी की कला आदि । वर्तमान राजनीति में तो एक दूसरे को सत्ता से गिराने के लिए अनेक छल-प्रपंच, झूठ-फरेब, तिकड़मबाजी आदि की जाती है, उसे भी कला (Policy-पॉलिसी) कहा जाता है। कई लोग झूठ बोलने को कला में उस्ताद होते हैं, कई बेईमानी करने और धोखा देने की कला में माहिर होते हैं, कई लोग दूसरों का धन हरण करने में, विज्ञापनबाजी को कला द्वारा दूसरों का धन खींचने में उस्ताद होते हैं। कई वाक्छल की कला में निपुण होते हैं । एक बार एक चालाक आदमी ने एक पत्रिका में विज्ञापन दिया कि "भोजन के समय मक्खियाँ नहीं सताएँ, इसके लिए हमारे यहाँ से नुस्खा मिलेगा, सिर्फ दो आने में।" उस समय एक पैसे का पोस्टकार्ड चलता था, इसलिए उसने विज्ञापन में बताया"साथ में जवाबी कार्ड भेजें।" लाखों लोगों ने यह नुस्खा मँगाया, साथ में जवाबी कार्ड था-उस पर छपवा दिया- 'आप जब भोजन करें तब एक हाथ से भोजन करें और दूसरे हाथ से मक्खियाँ उड़ाएँ।" बस, इसी नुस्खे के बल पर जनता के हजारों रुपये हजम ! यह है विज्ञापन-कला के द्वारा दूसरों का धन-हरण करने का उदाहरण ! कई व्यापारी ग्राहक को चकमे में डालने की कला में निपुण होते हैं । एक जगह एक दूकानदार ग्राहक को वस्तु के दाम बताने के बाद, जब ग्राहक कहता कि दाम कुछ ज्यादा हैं; तो दूकानदार कहता-'ज्यादा लेवे सो छोरा-छोरी खाय,' 'अधिक ले सो गो खाय।' इस प्रकार कहता तो ग्राहक समझता कि यह लड़के-लडकी की और गाय की कसम खाता है, इसलिए अधिक नहीं ले रहा है ; और दूकानदार बँध हुए रेट से अधिक लेता, वह पैसे लड़के-लड़कियों के खाते में और गाय के खाते में जमा कर लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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