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________________ १० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ उस पैसे का उपयोग लड़के-लड़कियों के विवाह में तथा इलाज आदि में एवं गायों के घास-चारे आदि में खर्च करता है । मैं आपसे पूछता हूँ कि झूठ, चोरी, बेईमानी, छल आदि से किये गये कार्य या नरक आदि का डर बताकर या स्वर्ग का प्रलोभन देकर लोगों से रुपये ऐंठने आदि के कार्य कला भले ही कहलाते हों, पर वह कला जीवन को पतित, निकृष्ट और दूषित बनाने की कला है । इस कला से मनुष्य अपनी कला का दुरुपयोग करता है, अपनी बुद्धि और तन-मन को अस्वस्थ बनाता है । एक प्राचीन कथा इस सम्बन्ध में प्रकाश डालती है । कौशाम्बी नगरी का सहस्रमल्ल नामक कुलपुत्र छल-कपट, ठगी, परद्रव्यह्रण, चोरी आदि निम्नकोटि की कलाओं में निपुण एवं अत्यन्त साहसी था । उसका पिता मर चुका था । परन्तु वह पिता के जीते-जी लोगों से ब्याज पर रुपये कर्ज लेता था और जब वे लोग रुपये वापस करने का तकाजा करते तो यह कह देता कि मेरे पास कुछ नहीं है । खाने के ही लाले पड़ रहे हैं, मैं कहाँ से तुम्हारे रुपये चुकाऊँ ? इसके सिवाय वह शराब, जुआ, मांसाहार, वेश्यागमन आदि अनेक दुर्व्यसनों में पैसा ॐ क देता था । जब पैसा बिलकुल खत्म हो जाता, तब वह चोरी करने जाता था । चौर्यकला में वह सब तरह से निपुण हो गया था । बनिया, ब्राह्मण आदि सवर्णों का भद्रवेश बनाने में वह अत्यन्त कुशल था । अनेक देशों की भाषा जानता था । उस नगर में रत्नसागर नामक वणिक् जौहरी रत्नों का व्यवसाय करता था । सहस्र-मल्ल ने उसे देखा और बनिये का वेश बनाकर उसकी दूकान पर जा पहुँचा । रत्न निकलवाकर देखे, और पूछा "इतने ही हैं या और भी ?” रत्नसागर बोला – “दूसरे भी है ।" सहस्रमल्ल ने कहा - " दिखाओ तो ।" रत्नसागर दूकान में घुसा । एक गड्ढा खोदकर रत्नों का डिब्बा खोला, उसमें से रत्न निकालकर उसे दिखाये, मूल्य भी बताया । वह बोला — “अच्छा इन रत्नों को मैं ले जाता हूँ । इनके दाम कल सुबह दे दूँगा ।" बनिया बोला - " मैं किसी को उधार माल नहीं देता ।" यों कहकर रत्न उससे लेकर रख लिये । सहस्रमल्ल चोर भी रत्नों को रखने का स्थान देखकर घर पहुँचा । रात को चोर का वेष बनाकर वह रत्नसागर की दूकान पर आया । वहाँ सेंध लगा कर सर्वप्रथम पैर अन्दर डाले । वे बिछौने पर सोये हुए रत्नसागर के पुत्र को ଷ୍ଟୁ गये । चोर का प्रवेश जानते ही शय्या से उठकर उसने चोर के दोनों पैर कसकर पकड़ लिये । इसी खींचतान में चोर का शरीर घिस गया । तब रत्नसागर के लड़के ने उसे छोड़ दिया । छूटते ही वह दौड़कर घर पहुँचा । उसने सब बातें माता से आकर कहीं । दूसरे दिन पीड़ा से कराह रहा था, तब माता ने कहा - "बेटा ! पराया धन लेने जाय उसे सारण जुआरी की तरह मरणान्त कष्ट भी सहना चाहिए ।" कुछ ही दिनों में वह ठीक हो गया । फिर चोरी करने लगा । पुरोहित के यहाँ सेंध लगाई, बढ़िया माल चुराकर घर लाया । माता को सौंपा। माँ ने पूछा - "बेटा ! यह धन कहाँ से लाया ?” तब उसने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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