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________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ९३ यही कहता है कि लोग मांस खाना पसंद करते हैं, उसकी मांग करते हैं, इसलिए वह पशुओं को मारकर मांस तैयार करता है । यदि लोग मांस न खाएँ तो वह पशुओं को क्यों मारेगा? दूसरी बात यह है कि मांसभोजी लोग दीर्घदृष्टि से सोचें कि उनकी थाली में मांस आने से पहले कितने निर्दोष जानवरों की हत्या हुई है ? कितनी यातनाएँ उठानी पड़ी हैं ? पहले तो पशुओं को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में भूख, सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि की कठोर पीड़ा होती है, रास्ते में उन्हें लेटने और विश्राम करने की जगह भी कठिनाई से मिलती है, फिर बूचड़खाने में लोग शराब पीकर उन्हें कुल्हाड़ी, भाले या मुद्गर आदि से निर्दयतापूर्वक पीटकर क्रूरतापूर्ण ढंग से कत्ल करते हैं। क्या कोई भी सभ्यता का अभिमानी मानव इस प्रकार की नृशंस पशुहत्या से प्राप्त मांस का भोजन कर सकता है ? क्या पशु-हत्या से निष्पन्न मांस खाने वाले को उसके फलस्वरूप भयंकर अधोगति में नहीं जाना पड़ेगा ? क्या इस घोर अपराध के फल से वह छूट जायेगा? श्री तिलोक काव्य-संग्रह में स्पष्ट कहा गया है मांस के कारण नाश पंचेन्द्री को, करे है दुष्ट दया नहीं लावे। देह को पुष्ट करे, न करे धिन, आमिष भक्षे रु दक्ष कहावे॥ नीच अधर्मी प्रशंस करे शठ, नीच अधोगति सो मर जावे। झड़ाझड़ झूमर मार पड़े नित्य, कहत तिलोक सो कौन छुड़ावे ॥ मांस : मनुष्यता से गिराने वाला तमोगुणी भोजन सभी धर्मग्रन्थों में उस भोजन को सर्वथा त्याज्य एवं आत्मविकास के लिए सर्वथा अयोग्य बतलाया है, जिससे मनुष्य के स्वभाव में क्रोध, उत्तेजना, आवेश, क्रूरता, कठोरता, प्रतिक्षण उग्रता, निर्दयता एवं लोलुपता आदि तामसिक गुण पैदा हों; मनुष्य का स्वभाव क्रूर और निर्दय बन जाता हो। मांस तमोगुणप्रधान आहार है। मांस के अन्तर्गत मछली, अण्डे, रक्त आदि सभी आ जाते हैं । मांसाहार से मनुष्य की अन्तवृत्तियाँ राक्षसी हो जाती हैं । प्राचीन धर्मग्रन्थों में राक्षसों और दैत्यों आदि को मांसाहारी बताया है। भारत की यात्रा करने वाले विदेशी यात्री फाहियान, मार्कोपोलो, जे. टी. हीलर, हान फ्लायर आदि ने अपनी भारत यात्रा के वर्णनों में यही लिखा है 'भारत में चाण्डालों के अतिरिक्त कोई सभ्य व्यक्ति मांस नहीं खाता था।' मांसाहारी मांसासक्त होकर मानवता की सौम्य प्रकृति से दूर हट जाता है। मांसाहारी मनुष्य से दया और अहिंसा की आशा करना व्यर्थ है। इसीलिए निषिद्ध भोजनों में मांसाहार का प्रथम नंबर है, क्योंकि यह मानवता से भी गिरा देता है । मन की असुरता को बढ़ाता है। भारत के आध्यात्मिक मनीषियों ने मनन और अनुभव के आधार पर मांसाहार को अभक्ष्य और निषिद्ध भोजन बताया है। अतः मनुष्य के स्वाभाविक और प्राकृतिक भोजन में मांसाहार के लिए कोई स्थान नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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