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________________ ६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कर्म है । एक तो, मांस के लिए मूक, निरपराध एवं निरीह पशु-पक्षियों की गर्दन पर छुरी फेरकर उनकी हत्या की जाती है। फिर उनके शव के टुकड़े-टुकड़े करके रसोई में पकाया जाता है, फिर दाँतों से चबाकर उदरस्थ किया जाता है, इतना सब करने के बाद स्वादपूर्ण संतोष की सांस ली जाती है । उफ ! कितनी भयंकर क्रूरता है ! कितना पैशाचिक कृत्य है ! कोई हत्यारा भी अपने शत्रु को अधिक से अधिक मार कर ही छोड़ देता है, किन्तु मांसभोजी तो कोई अपराध न करने पर भी अकारण ही उस पशु या पक्षी को, जो न तो उसका इरादा समझ सकता है, न कोई शिकायत या विरोध कर सकता है और न ही अपनी पीड़ा कह सकता है, जबर्दस्ती पकड़ कर मारता है, उसकी गर्दन काटता है, उसकी बोटी-बोटी काटता है, फिर हर्षपूर्वक पकाकर परिवार के साथ बैठकर भोग लगाता है, उसे खाता है, स्वाद लेता है, संतोष प्रकट करता है, तारीफ किया करता है। __ सर्वश्रेष्ठता का दम्भ भरने वाले मानव से पूछा जाए कि क्या तुम्हारी सभ्यता और मनुष्यता की यही पहचान है ? यही सर्वश्रेष्ठता का लक्षण है ? उस निरीह, मूक एवं निरपराध पशु का क्या अपराध था? उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? जिसे अपने स्वजनों और साथियों के बीच से पकड़कर तुमने काट डाला और पकाकर खा लिया ? यदि वह निर्बल है, बोल नहीं सकता, अपनी पीड़ा को कह नहीं सकता, खुशी से तुम्हारे आश्रित था, विश्वास करता था कि ये मेरी रक्षा करेंगे, किन्तु तुमने बिना किसी झिझक के उसे ऐसे मार डाला, मानो उसकी जिंदगी का कोई मूल्य न हो। यदि मांसाहारी के बच्चे को कोई किसी अपराध के कारण भी मार बैठता है, या कोई कठोर व्यवहार कर देता है, तो वह झट आपे से बाहर होकर उसे भलाबुरा कहने लगता है, किन्तु किसी पशु-पक्षी के सुकुमार छौने को मारकर उसका मृतमांस खाने में न तो अपनी निन्दा करते हैं, न अपने पर क्रोध करते हैं और न ही अपने को कोई दण्ड देते हैं । बल्कि उसे उलटा अपना अधिकार समझ लेते हैं । यह इसीलिए कि उन निरीह पशुओं का कोई साथी नहीं, और न वे संगठित होकर एक-दूसरे की सहायता कर सकते हैं। यदि ये दीन पशु बोलते नहीं, आपका विरोध नहीं करते तो यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इनको पीड़ा नहीं होती। निरीह प्राणियों को मारने का अधिकार कोई भी धर्मग्रन्थ या धर्मगुरु नहीं देता। सभी धर्मों ने मांसाहार को प्राणियों के प्रति दया एवं प्रेम में बाधक मानकर इसे त्याज्य बताया है। सीधा मांस खरीदकर खाना भी अपराध है मांसभोजी व्यक्ति अपने समर्थन में बहुधा यह कहा करते हैं कि वे तो कसाई से सीधा ही मांस खरीदकर लाते हैं, स्वयं अपने हाथ से किसी पशु का वध नहीं करते । यह दलील इसलिए ठीक नही है कि यदि उस कसाई से पूछा जाए तो वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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