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________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ६१ विश्वविख्यात नाटककार 'जार्ज बर्नार्ड शॉ' को एक बार डॉक्टरों ने सलाह दी कि "आप मांसाहार न करेंगे तो जल्दी ही मर जाएँगे।" शॉ ने जवाब दिया-"यदि मैं दूसरों का प्राणघात किये बिना जिन्दा नहीं रह सकता तो मेरा मर जाना ही अच्छा है।" वे कहा करते थे-"अपने-अपने कुटुम्बियों को मारकर खा जाना और पशु-पक्षियों का मांस खाना बराबर है । समान स्तर का अपराध है।" वास्तव में पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणी मनुष्य के छोटे भाई के समान हैं, उनमें भी उसके समान ही आत्मा है। दूसरे प्राणी समझें या न समझें, मानव को तो मानना व समझना ही चाहिए कि उसकी महत्ता और बुद्धिमत्ता दूसरे प्राणियों को मारकर खाने में नहीं, उसकी सहृदयता और आत्मीयता पर निर्भर है। वह आत्मौपम्य दृष्टि से अपने समान दूसरे के सुखदुःखों को भी तोले। स्वयं को जैसे सुख प्रिय है, दु:ख अप्रिय है, वैसे ही दूसरे प्राणियों को भी उतना ही सुख-दुःख प्रिय तथा अप्रिय होता है। अपने प्राण सभी को समान रूप से प्रिय हैं, सबको पीड़ा समान होती है। जैनशास्त्र आचारांगसूत्र में तो स्पष्ट कहा है-- 'तुम सि नाम तं चेव, जं चेव हंतव्वं त्ति मन्नसि' “तुम वही हो, जिसे तुम मारने का विचार कर रहे हो ।” तथागत बुद्ध ने भी प्राणियों के प्रति मैत्री और करुणा को मनुष्य की विशेषता माना है। आत्मौपम्य की दृष्टि ही मानव की सर्वश्रेष्ठता की प्रतीक है। अपनी चमड़ी मे कील चुभोकर या कोई अंग काटकर व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि शरीर को कितनी पीड़ा होती है ? अपने बच्चों और प्रियजनों को अपनी आँखों के सामने काटा जाए तब उनकी करुण चीत्कार सुनकर मांसाहारी कल्पना कर सकता है कि मांस कैसे प्राप्त होता है ? इसीलिए महाभारत में कहा है न हि मांसं तृणात् काष्ठादुपलाद् वाऽपि जायते । हत्वा जन्तु ततो मांसं, तस्माद् दोषस्तु भक्षणे ॥ -मांस तृण से, काष्ठ से या पत्थर से नहीं पैदा होता, वह जीव की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है, इसीलिए उसके खाने में महादोष है। पशु-पक्षी भी सिर कटते और पेट फटते समय उतना ही चीत्कार करता है। जितना मनुष्य करता है। दोनों के हाहाकार और चीत्कार में, तड़फन और पीड़ा में कोई अन्तर नहीं। मनुष्य को मारकर खाने वाला और अन्य जीवों को मारकर खाने वाला कानून की दृष्टि से भले ही कम अपराधी हो, मगर कर्मों के कानून की दृष्टि में दोनों भयंकर पापकर्म हैं, अपराध हैं, जिसका दण्ड उसे देर-सबेर भोगना ही पड़ता है। मांसाहार : हत्या से भी बढ़कर ऋ र कर्म क्रूर कर्मों में हत्या सबसे बढ़कर है, किन्तु मांस-भोजन तो उससे भी घोर कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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