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________________ ९० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ बेखबर प्राणियों को पकड़ने के लिए रात में विचरते हैं। मांसाहारी शिकार के शरीर को अपने दांतों और पंजों से दबोच सकते हैं, वे चीर-फाड़ करके खा सकते हैं और कच्चा मांस पचा सकते हैं, ऊपर से चमड़ी, बाल आदि उतारने की उन्हें जरूरत नहीं होती। भेड़िये तो हड्डी तक पचा जाते हैं । शाकाहारी वैसा नहीं कर सकते । मनुष्य के लिए बिना पका मांस पचाना सम्भव नहीं। हड्डी, आँत, बाल, चमड़ी आदि अनेक भाग हटाकर वह केवल माँसपेशियाँ ही पकाकर खा पाता है। इन सब कसौटियों पर कसने पर मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी ही सिद्ध होता है, उसकी शरीर-रचना और आदत में एक भी ऐसी विशेषता नहीं है, जो मांसाहारियों में पायी जाती हैं। निष्कर्ष यह है कि मांसाहारी और शाकाहारी प्राणियों की स्थिति में भिन्नता स्पष्ट है। इसीलिए कवि कहता है मनुज प्रकृति से शाकाहारी, मांस उसे अनुकूल नहीं है । पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल-फूल नहीं हैं । मांसाहार : मानवीय विशेषता की दृष्टि से त्याज्य मैत्री एवं मर्यादा ये दो आधारभूत गुण हैं, जिनके आधार पर मनुष्य को पशु-पक्षियों से अलग माना जाता है। जिसमें ये दो गुण न हों, उसे मनुष्य कहना कठिन होगा। मैत्री के अन्तर्गत दया, क्षमा, करुणा, अहिंसा, संवेदना, सहानुभूति और सौहार्द आदि गुण आ जाते हैं। जिसके हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव होगा, वह किसी को भी पीड़ा पहुंचाने में हिचकिचायेगा। इसी प्रकार संयमनियम, विधि-विधान आदि व्यवस्थाएँ मर्यादा के अन्तर्गत आती हैं। यह गुण भी मनुष्य में ही होता है । जिससे समाज में अशान्ति हो, किसी भी प्राणी को दुःख और पीड़ा हो, वैसा कार्य मनुष्य नहीं कर सकता। यदि वैसा कार्य करता है तो वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन करता है, वह मानव नहीं रह जाता। इन्हीं दो मानवीय विशेषताओं के कारण यह कहा जा सकता है कि मांसाहार मानव के लिए त्याज्य है। मानव सर्वश्रेष्ठ प्राणी क्या मांसाहार के कारण है ? __ मनुष्य विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह इस कारण नहीं है कि दूसरे प्राणियों को सताये, मारे-पीटे, उनके प्राण हरण कर ले, उनके प्रति निर्दयता का व्यवहार करे, अपने स्वाद और कल्पित स्वार्थ के लिए मूक निर्दोष पशुओं को मारकर खा जाये । उसको सर्वश्रेष्ठता इसी में है कि वह दूसरे प्राणियों के प्रति दया, करुणा, सहृदयता एवं स्नेह भरी सद्भावना रखे, उन्हें सुख-शान्तिपूर्वक जीने दे, उनके प्रति मैत्री एवं आत्मीयता का व्यवहार रखे। ___ मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता इसी में है कि वह पशू-पक्षी आदि प्राणियों को अपने कुटुम्बीजन माने। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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