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________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २२१ महात्मा गाँधी जैसे महामना समर्थ लोगों ने अपनी क्षमा और सहिष्णुता द्वारा मिथ्या सिद्ध कर दिया है। यदि किसी कारणवश या अज्ञानवश कोई व्यक्ति किसी समर्थ को कटुवचन कहता है, गाली-गलौज करता है, या ताड़ना देता है, फिर भी उसके प्रति क्षमाभाव दर्शाते हुए वह सहन करता है, उससे उसके हृदय में अध्यात्मिक प्रकाश का उदय होता है, और जीवन में सुख, शान्ति और समाधि की मात्रा बढ़ती है । क्षमा की परिभाषा ही यही है 'सत्यपि प्रतीकारं सामर्थ्यऽपकारसहनं क्षमा' "प्रतीकार करने का सामर्थ्य होते हुए भी दूसरे के अपकार को सहन करना क्षमा है।" जिस हृदय में प्रतिहिंसा की, प्रतिशोध की, अथवा हिंसक प्रतिरोध की भावना है, वह व्यक्ति धन, सत्ता, प्रभुता आदि से चाहे जितना समर्थ हो, स्वप्न में भी मानसिक शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता और न ही आध्यात्मिक पथ में आगे बढ़ सकता है । प्रतिहिंसा या प्रतिशोध की भावना से जिसका हृदय क्षुब्ध एवं अस्थिर है, उसमें सच्ची शान्ति कैसे रह सकती है ? ऐसे विकारग्रस्त चित्त में वैरभाव घर कर लेता है, जिसके कारण चित्त की सारी शुभ वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं । प्रतिहिंसा की भावना अन्दर ही अन्दर चित्त को विषाक्त बना देती है। और यह भी सत्य है कि प्रतिहिंसा या प्रतिशोध की शक्ति न होने से अनिच्छापूर्वक आपने सहन कर लिया, किन्तु तन-मन में प्रतिहिसा एवं प्रतिशोध की भावना बनी रही तो, वह क्षमा या सहिष्णुता नहीं होगी, कायरता या निर्बलता ही होगी। इसलिए इस ध्र व सत्य पर अटल विश्वास रखें कि हिंसा को प्रतिहिंसा से नष्ट नहीं किया जा सकता, उसे तो प्रेम, क्षमा एवं सहिष्णुता द्वारा ही जीता जा सकता है। इसलिए वैरभाव, क्रोध, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध या हिंसक प्रतिकार आदि सबको आत्मा के महान् शत्र मानकर उनसे अलग रहना चाहिए, तभी दूसरों के हृदय को क्षमा भाव से जीता जा सकता है । एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए--- चित्तौड़ में एक महान् शान्तिप्रिय विनम्र कवि हो गये हैं। वे मूल तो सौराष्ट्र निवासी थे, परन्तु चित्तौड़ में कैसे आगए ? इसके पीछे उनके जीवन की एक प्रबल घटना है । वे दो भाई थे । बड़ा भाई शान्त था, छोटा उग्र। एक बार दोनों भाइयों में किसी तुच्छ बात पर झगड़ा हो गया । बड़े भाई ने छोटे भाई को बहुत समझाया, पर उसने एक न मानी, बल्कि क्रोध में आगबबूला होकर हाथ में लाठी लेकर बड़े भाई को मारने दौड़ा । बड़े भाई को विचार आया कि मैं इसे इतना समझाता हूँ फिर भी समझता नहीं, उलटे मुझे मारने आया है । इसलिए उसे भी गुस्सा आ गया। उसने क्रोधावेश में छोटे भाई के हाथ से लाठी छीन ली और उसी के मारी। छोटा भाई तुरन्त जमीन पर गिर पड़ा और वहीं उसने दम तोड़ दिया। यद्यपि बड़े भाई ने उसके इतनी जोर से लाठी नहीं मारी थी, किन्तु उसका आयु इसी निमित्त पूर्ण होना था। छोटे भाई की इस करुण मृत्यु को देखकर बड़े भाई के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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