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________________ २२० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अपनी वस्तु देते हैं। वृक्ष सूर्य का प्रचण्ड ताप तथा कड़कड़ाती ठंड सहन करके तथा फलदार वृक्ष ढेले, पत्थर एवं लकड़ी आदि का प्रहार सह करके भी फल, फूल, छाया, लकड़ी आदि देते हैं । जब प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ इसी प्रकार स्वयं सहकर जगत् को देता है, तब मनुष्य का तो कर्तव्य है कि वह समर्थ होने पर स्वयं सहन कर दूसरों को क्षमा करे तो बहुत कुछ दे सकता है । यह कोई इतना कठिन काम नहीं है कि वह इसे न कर सके। चाहिए स्वयं अपने आप पर नियन्त्रण अरविन्द आश्रम, पांडिचेरी की फ्रेंच माताजी ने अपने जीवन का एक संस्मरण लिखा है, उसमें बताया है कि उत्तरफ्रांस निवासी एक युवक से मेरा परिचय हुआ। वह लड़का मन का तो बहुत सरल था, परन्तु हृदय का बड़ा उग्र था। उसके हृदय में क्रोध का उफान हर समय आने को उद्यत रहता था । एक दिन मैंने उससे कहा-"जरा सोचकर बताओ, तुम जैसे हृष्ट-पुष्ट लड़के के लिए सबसे कठिन कौन-सी बात हैथप्पड़ के बदले थप्पड़ लगाना, या मारने वाले साथी के मुंह पर मुक्का मारना, अथवा ठीक उसी समय मुट्ठी को जेब में डालना ?" वह बोला--'अपनी मुट्ठी को जेब में डालना।" मैं बोली-“अच्छा अब बताओ, तुम जैसे तेजस्वी लड़के के लिए सबसे आसान काम करना उचित है या सबसे कठिन काम ?' एक मिनट सोचकर उसने कहा-"सबसे कठिन काम करना ।" मैंने कहा- "बहुत ठीक ! अबकी बार ऐसा करने का ही प्रयत्न करना।" उसके कुछ ही दिनों बाद वह युवक मेरे पास आया, उसने समुचित गर्व के साथ बताया कि “मैं सबसे कठिन कार्य करने में सफल हो गया हूँ।” मैं-"कैसे ?" वह बोला-'कारखाने में मेरे साथ काम करने वाले युवक ने, जो अपने बुरे स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है । क्रोध में आकर मुझे पीटा । चूंकि वह जानता था कि मैं साधारणतया क्षमा नहीं किया करता, मेरी भुजाओं में बल भी है, अतः वह अपनी रक्षा के लिए तैयार हो गया । ठीक उसी समय मुझे जो बात आपने सिखाई थी, याद आ गई । वैसा करना मुझे कठिन लगा, परन्तु मैंने अपनी मुट्ठी जेब में डाल ही ली। जैसे ही मैंने ऐसा किया, मेरा गुस्सा न जाने कहाँ गायब हो गया । उसका स्थान साथी के प्रति दया ने ले लिया। मैंने तब अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया। एक क्षण तो वह मुंह बाए मेरी ओर ताकता रहा, एक शब्द भी न बोल सका; फिर शीघ्रता से मेरे हाथ की ओर लपका, उसे दबाया और पिघलकर बोला-"आज से तुम जो चाहो मुझ से करा सकते हो । मैं अब सदा के लिए तुम्हारा मित्र बन गया हूँ।" - इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो गया कि यह एक मिथ्या भ्रान्ति है कि दवाब से ही दूसरों को वश में किया जा सकता है । 'भय बिनु होई न प्रीत', इस उक्ति को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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