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________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ६५ मुसलमान पहलवानों में से एक भी विजयी नहीं हुआ, जबकि देखने में वे अधिक मोटेताजे थे। इस घटना से अखाड़े का उस्ताद इतना प्रभावित हुआ कि उसने तमाम मुसलमान पहलवानों का मांसाहार बन्द कर दिया। सन् १८६८ में जर्मनी में ६ शाकाहारी और २० मांसाहारी व्यक्तियों में ७० मील पैदल चलने की प्रतियोगिता हुई थी। इस प्रतियोगिता में भी जीत शाकाहारियों के हाथ में रही । शाकाहारी मांसाहारियों से बहुत पहले गन्तव्य स्थान पर पहुँच गये थे। शाकाहारियों को ७० मील दूरी तय करने में १४ घण्टे लगे थे, जबकि मांसाहारियों में से १ को छोड़कर बाकी १६ केवल पैंतीस मील चलकर शिथिल हो गये थे। एक मांसाहारी भी अन्तिम शाकाहारी से एक घण्टे बाद पहुंचा था, वह भी थका मांदा; जबकि सभी शाकाहारी पूर्ण स्वस्थ एवं प्रसन्न थे। सन् १८६६ में क्वेटा नामक स्थान में ऐसी ही दिलचस्प रस्साकस्सी प्रतियोगिता रखी गई। इसमें एक ओर मांसाहारी अंग्रेज थे, दूसरी ओर सिक्ख रेजीमेंट के निरामिष भोजी जवान । कुछ देर की खींचतान के बाद अंग्रेज जवानों के हाथ छिल गए और उन्हें रस्सा छोड़ना पड़ा । शाकाहारी जवानों की जीत हुई। विशुद्ध शाकाहारी ७० वर्षीय जे. ब्रसन ने इंग्लैण्ड के सम्मेलन में अपना अनुभव बताते हुए कहा- “सरकार के आदेशानुसार सैनिकों को शाकाहार की शिक्षा देने के लिए मैं साइकिल पर स्कॉटलैंण्ड गया। इन ८ दिनों की यात्रा में मैं बराबर शाकाहार करता रहा। इससे मेरा स्वास्थ भी ठीक रहा और ८ दिन साइकिल से चलकर भी जब मैं गन्तव्य स्थान पर पहुँचा, तब मुझमें इतनी शक्ति थी कि मैं बड़े से बड़े लट्ठे उठा सकता था, कठिन से कठिन काम कर सकता था।" इसके अतिरिक्त माल्टा, ब्राजील एवं अरब के मजदूर, जापानी सिपाही आदि जिन-जिन देशों के जो लोग शाकाहारी थे, वे हृष्ट-पुष्ट, बलवान एवं स्वस्थ पाये गये । इन सब उदाहरणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शाकाहारी ही अधिक शक्तिशाली होते हैं। कई लोग कहते हैं कि मांसभोजी बहादुर होता है और इसके लिए वे अनेक आक्रान्ताओं तथा युद्धकर्ताओं का उदाहरण देते हैं, मगर यह धारणा मिथ्या है। मांसाहारी बर्बर हो सकते हैं, वीर नहीं। बर्बरता वीरता नहीं, कायरता है और बलवान् से भीति है। वीर वह है, जो किसी सदुद्देश्य से तलवार उठाए, कष्ट उठाकर भी किसी दूसरे को अपने स्वार्थ के लिए कष्ट न दे, रणक्षेत्र में जाकर भागे नहीं, जो अपने बल का प्रदर्शन निर्बलों पर न करके आततायियों के विरुद्ध करे, जो सताने के बजाय निर्बलों एवं असहायों की रक्षा करे । इनमें से एक भी गुण किसी बर्बर में नहीं पाया जाता। निर्बलों को सताना और सबल के सामने गिड़गिड़ाना, यही बर्बर का सहज स्वभाव होता है। संसार के जितने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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