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________________ ३०८ : आनन्द प्रबचन : भाग १२ करो रक्षा विपत्ति से न ऐसी प्रार्थना मेरी । विपद् से भय नहीं खाऊँ, प्रभु ! यह भावना मेरी ॥ ध्रुव ॥ मिले दुःखताप से शान्ति, न ऐसी प्रार्थना मेरी । सभी दुःख पै विजय पाऊँ, प्रभु ! यह भावना मेरी ॥ करो १॥ मदद पर कोई आजाए न ऐसी प्रार्थना मेरी । न टूटे आत्मबल - डोरी प्रभु ! यह प्रार्थना मेरी ॥ करो ॥२॥ कितनी उत्तम भावना है- धर्मनिष्ठ व्यक्ति की ! वास्तव में धर्मनिष्ठ व्यक्ति को धर्म से अपनी सुरक्षा की माँग करने की आवश्यकता ही नहीं रहती, उसकी रक्षा स्वतः हो ही जाती है । 'धर्मो रक्षति रक्षितः ' सूत्र की सूझ परन्तु मनुष्य चाहे सुरक्षा की माँग करे या न करे अथवा भौतिक पदार्थों की सुरक्षा चाहे या आत्मिक रक्षा चाहे अथवा आत्मिक रक्षा की मांग करे — सबके लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वह धर्म की रक्षा करे । एक ओर धन, शरीर या अन्य भौतिक पदार्थों की रक्षा का प्रश्न हो, दूसरी ओर धर्म की रक्षा का - उस समय अन्य पदार्थों की रक्षा को गौण समझकर धर्म की रक्षा करे । आज का मनुष्य प्रायः अत्यन्त स्वार्थी हो गया है । वह हर दिशा में, हर क्षेत्र में पहले यह देखता है कि इस कार्य को करने से मेरा कितना हित या लाभ होगा, तत्पश्चात् उस कार्य को प्रारम्भ करता है । गाय, भैंस, घोड़े, बकरी आदि की वह इसलिए रक्षा करता है कि बदले में वे भी मनुष्य की सम्पत्ति एवं तन्दुरुस्ती की रक्षा करते हैं, बढ़ाते हैं । सियार, भेड़िया, लोमड़ी, हिरन, चीता, कछुआ आदि को आमतौर पर नहीं पाला जाता, क्योंकि इनसे मनुष्य की कोई रक्षा या स्वार्थसिद्धि नहीं होती । यही बात हर दिशा में है । व्यापार, विवाह, मित्रता, कुटुम्बपालन, विद्या, व्यायाम आदि को इसलिए साधारण मनुष्य अपनाता है या उचित ठहराता है कि इनके द्वारा मनुष्य का व्यवहार में हित साधन होता है, रक्षा होती है, सुख मिलता है । जिस कार्य से किसी अच्छे प्रतिफल की आशा नहीं होती, उसमें मनुष्य दिलचस्पी नहीं लेता । रक्षक, सैनिक, पहरेदार या चौकीदार आदि रक्षा करने वाले व्यक्तियों को पैसा खर्च करके भी मनुष्य इसलिए रखता है कि इनके द्वारा आने वाली बचाव होता है । यदि यह बात न होती तो कोई भी मनुष्य विपत्तियों और हानियों से इन्हें न रखता । इसी प्रकार सुखों को त्यागकर और रहता है; क्योंकि लाखों ' ने धर्मं को भली-भाँति परख लिया है कि वह हमारी रक्षा करता है । इसीलिए मनुष्य ने धर्म को बहुत बड़ी वस्तु माना है। छोटे-बड़े कष्टों को अपनाकर भी वह धर्माचरण के लिए प्रयत्नशील वर्षों का अनुभव यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा करने से अपनी इसीलिए लोग धर्म की रक्षा करना उचित समझते हैं। यदि इसमें यह गुण न होता तो कोई उसे स्वीकार न करता । रक्षा होती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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