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________________ धर्म : जीवन का त्राता : ३०७ इन्हीं का भाई था। उसका नाम था-हरामजादा; सारी दुनिया की मेहनत पचाकर बैठा रहने वाला । वह हाथ-पैर क्यों हिलाए ? यों सब लोग प्यासे ही बैठे रहे । वर्तमान युग के मानव को धर्मरूपी जल से सुरक्षा की प्यास तो बुझानी है, पर धर्माचरण के लिए कोई पुरुषार्थ करना नहीं चाहता, बिना हाथ-पैर हिलाए ही कहीं से धर्म का फल मिल जाए तो सुरक्षा की प्यास बुझाने को प्रतीक्षा में बैठा रहता हैं । स्वयं धर्म में उद्यम नहीं कर सकता। धर्म से रक्षा : किसको और क्यों ? क्या धर्म से मनुष्य के शरीर की रक्षा होती है, स्त्री-पुत्र या परिवार की, अथवा धन और साधनों की रक्षा होती है ? अथवा धर्म मनुष्य की आत्मा या जीवन की रक्षा करता है ? गहराई से इस प्रश्न पर जब हम विचार करते हैं तो धर्म आत्मविशुद्धि का साधन है, आत्मा पर जो कर्ममलों का आवरण है, जिसके कारण आत्मशक्ति कुण्ठित हो जाती है, आत्मविकास अवरुद्ध हो जाता है, धर्म उन आते हुए कर्मों को रोकता (संवर) है, अथवा कर्मों का अंशतः क्षय (निर्जरा) या सर्वथा क्षय (मुक्ति) करता है । इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि धर्म मनुष्य की आत्मा की रक्षा करता है । चूकि मनुष्य की आत्मा अकेली नहीं है, वह शरीर, इन्द्रियों तथा मन आदि के साथ सम्बद्ध है, इसी कारण शुभाशुभ कर्मों का बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप वह सुगति-कुगति में जाता है, शुभ-अशुभ योनि को प्राप्त करता है, सुख-दुःख, रोग-आरोग्य आदि प्राप्त करता है। इस दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि धर्म जीवन की रक्षा करता है। जब मनुष्य धर्माचरण करता है, तब अशुभकर्म क्षीण हो जाते हैं, शुभकर्मों का बाहुल्य हो जाता है। शुभकर्म के बाहुल्य का अर्थ है-- पुण्य की प्रबलता । जब मनुष्य के पुण्य प्रबल हो जाते हैं, तब उसके शरीर, परिवार, स्त्री-पुत्र, धन और साधनों आदि की रक्षा होना स्वाभाविक है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि धर्म सीधा तो आत्मा की या जीवन की रक्षा करता है । परन्तु परम्परा से उससे मनुष्य की पुण्यबृद्धि होने पर वह मनुष्य के शरीरादि की भी रक्षा करता है। इसी धर्म ने महात्मा गांधी को विदेश-प्रवास के समय अब्रह्मचर्य में प्रवृत्त होने से बचाया था। इसी धर्म ने वन में तपस्या करते हुए वीर अर्जुन को अप्सरा के चंगुल में फंसने से बचाया था। ___बल्कि जो व्यक्ति धर्म में अधिक ओतप्रोत हो जाता है, वह शरीरादि भौतिक पदार्थों की रक्षा की इच्छा नहीं करता, सहज ही रक्षा हो जाए, यह बात दूसरी है। वह प्रभु से या धर्म से केवल आत्मशक्ति या आत्मरक्षा ही चाहता है । कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इसी आशय की एक प्रार्थना है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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