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________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छा निरोध दुष्कर : २३७ हो रहा है, वरन् हानि ही सहनी पड़ रही है। यह वृद्धि वैसी ही है, जैसी कुसंस्कारों की या अनैतिकता से उपार्जित सम्पदा दुष्टताओं और दुर्गुणों को बढ़ाने का निमित्त बनती है। हाल ही में ब्रिटिश चिकित्सकों ने तथा 'लन्दन इन्स्टीट्यूट ऑफ सायकिल्ट्री' के प्रोफेसर कोर्सेलिस एवं डॉ. एच. मिलर ने अपनी प्रामाणिक शोध द्वारा यह सिद्ध किया है कि "मानवीय मस्तिष्क का वजन निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है और उसी अनुपात में मस्तिष्कीय क्षमता का निरन्तर ह्रास भी होता जा रहा है। इसी अनुपात में स्नायविक रोगों की संख्या तथा आत्म-हत्या करने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है।' इन वैज्ञानिकों के मतानुसार भार एवं आयतन का सीधा सम्बन्ध है। मस्तिष्कीय भार के अनुपात में आयतन भी बढ़ा है। इसी कारण मानसिक अशान्ति, दिमाग में तनाव, तथा हृदय रोग एवं स्नायविक रोगों की वृद्धि हम प्रत्यक्ष देखते हैं। ऐसा लगता है कि भौतिक सुख-सम्पदाओं की तलाश में मनुष्य के मस्तिष्क पर अधिक बोझ पड़ गया है। __ आज से सौ वर्ष पहले के मानव अपनी सीमाओं में सुरक्षित थे, शान्तिपूर्ण जीवन जीते थे तथा उनमें पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। आज का मानव 'अशान्त है, प्रतिद्वन्द्वी है, मनोविकार व तनाव से ग्रस्त है । प्रतिद्वन्द्विता, उत्तेजना तथा उलझनों के कारण मानव मस्तिष्क पर भार पड़ा, इससे वह भावनात्मक धरातल पर कमजोर पड़ गया है। कमजोर मस्तिष्क उसकी निर्णय शक्ति का साथ नहीं दे पाता, तब वह मानसिक सुषुप्ति के लिए दवाओं का सहारा लेता है । विक्षिप्त व्यक्ति समाज के लिए घातक, बोझ तथा मृत व्यक्ति के समान होता है। मस्तिष्कीय उत्कृष्टता पर मानव की सच्ची सुख-शान्ति, समृद्धि एवं आत्मिक उन्नति का सारा ढाँचा खड़ा है। परन्तु उससे उपयोगी प्रयोजन तभी सध सकते हैं, जब मस्तिष्क अपनी स्वाभाविक एवं सन्तुलित अवस्था में बना रहे। अत्यधिक मात्रा में काम लेने से मस्तिष्क की दुर्गति होती है, वह सन्तुलित नहीं रहता। आजकल जो चिन्ता, भय, निराशा, द्वेष, लोभ-लालसा जैसे मनोविकारों का अनावश्यक दवाब पड़ रहा है, उसका प्रधान कारण मस्तिष्कीय भार वृद्धि है । जैसे मस्तिष्कीय भारवृद्धि प्रत्यक्षतः अतीव हानिकारक हो रही है, वैसे ही केवल धन, वैभव, भोग-सामग्री आदि साधनों में वृद्धि भी हानिकारक सिद्ध हो रही है । इसलिए अवांछनीय अभिवृद्धि वास्तविक सुखोपभोग के लिए अत्यन्त घातक है। २. अनुपयुक्त आकांक्षाएँ-सुखोपभोग में दूसरा बाधक तत्व है-अनुपयुक्त आकांक्षाएँ । अनुपयुक्त आकांक्षाएँ क्यों और कब पैदा होती हैं ? यह भी जान लेना आवश्यक है । मनुष्य जब दूसरों की तुलना में अपने आपको दीन-हीन समझता है, तब उसमें ईर्ष्या और हीनता के भाव पैदा होते हैं । मानसिक असन्तोष या सन्ताप भी इसी अभाव की भावना से उत्पन्न होता है। इसके कारण प्रतिक्षण घुटन, रोष, क्षोभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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