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________________ २३८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ और तनाव का भी वह अनुभव करता है। इस असन्तोष से कुण्ठा, कुढ़न एवं विषाद के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगता। फिर आशा, उत्साह और कार्य करने की क्षमता ही नष्ट हो जाती है। जैसे-तैसे बिना मनोयोग के किया हुआ कार्य जीवन को सरस, सुख-सम्पन्न और सन्तुष्ट नहीं बना सकता। इस मानसिक असन्तोषरूपी व्याधि का मूल कारण वे अनुपयुक्त आकांक्षाएँ ही हैं। ___ अनुपयुक्त आकांक्षाओं से मनुष्य अनावश्यक प्रतिस्पर्धा-प्रतियोगिता पालता है । दूसरों से होड़ लगाकर आगे बढ़ता है। अनुपयुक्त आकांक्षाओं से पल्ले क्या पड़ता है ? सिर्फ असन्तोष, अशान्ति और आर्तध्यान ही तो! परन्तु आज के भौतिक संघर्षपूर्ण जीवन में अधिकांश व्यक्ति इसी प्रकार के अनावश्यक फैशन, प्रदर्शन, विलास व सुख-सुविधाओं की वस्तुओं तथा खर्चीली कुप्रथाओं की प्रतिस्पर्धा में लगे हैं। इन सबकी जननी अनुपयुक्त आकांक्षा है। जीवन के हर क्षेत्र में मितव्ययिता, सादगी, सज्जनता, नैतिकता, व्यसनमुक्तता, परोपकार आदि सद्गुणों की स्वस्थ प्रतियोगिता हो तो वह मनुष्य की सुख-शान्ति, आत्मिक उन्नति और संतोष बढ़ाने में सहायक होती है। परन्तु ऐसी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा श्रेष्ठ आकांक्षाओं के कारण होती है। ___ यद्यपि आकांक्षाओं के महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता किन्तु उनका औचित्यपूर्ण होना आवश्यक है। यदि व्यर्थ की अनुपयुक्त आकांक्षाएँ मन में उदित हुई तो वे जीवन को असन्तोष आदि दुर्गुणों की आग से भर देंगी। श्रेष्ठ आकांक्षाएँ जहाँ मनुष्य को महान् बनाती है, उसके जीवन में सुख, शान्ति और संतोष भरती हैं, वहाँ विकृत एवं निकृष्ट अनुपयुक्त आकांक्षाएँ उसे दुःख, दारिद्रय, असन्तोष एवं अशान्ति के नरक में धकेल देती हैं। श्रेष्ठ आकांक्षाओं से समाज, राष्ट्र एवं विश्व का हित सम्पादित होता है, जबकि दूषित निकृष्ट आकांक्षाओं से समाज, परिवार, राष्ट्र एवं विश्व का अहित ही होता है, व्यक्तिगत जीवन में भी अशान्ति और क्लेशादि ही बढ़ते हैं । श्रेष्ठ आकांक्षाओं से प्रेरित व्यक्ति अपने जीवन में उन चीजों को स्थान नहीं देते, जिनसे समाज का अहित होता हो । उनकी सारी योग्यता समय, धन, साधन एवं शक्ति तथा क्षमता अपनी तथा परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की श्रेष्ठता की अभिवृद्धि में लगी रहती है, वे अपनी क्षमताओं एवं शक्तियों का दुरुपयोग इन्द्रिय-भोगलिप्सा की पूर्ति में नहीं करते। वे अपनी शारीरिक-मानसिक शक्तियों का उपयोग श्रेष्ठता के अभिवर्द्धन में करते हैं । दूषित एवं अनावश्यक आकांक्षाएँ निकृष्ट एवं हेय मानी गईं हैं । वे मनुष्य को झूठी शान-शौकत बढ़ाने, कुव्यसनों में लगे रहने, राग-रंग, विलास, अपव्यय एवं भारी प्रदर्शन में जुटे रहने को प्रेरित करती हैं। ऐसी थोथी महत्त्वाकांक्षाएँ जब मनुष्य के मन में भड़कती हैं, तो वे उसकी व्यक्तिवादी अहम्मन्यता को बढ़ाती हैं। मनुष्य प्रतिस्पर्धी बनकर दूसरों से अधिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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