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________________ २३६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ इसीलिए मैं कह रहा था कि सम्पदाओं के साथ सद्विचार, सदाचार और सद्गुणों (सद्धर्म) की विभूतियाँ हों, तभी मनुष्य को सच्ची सुख-शान्ति मिल सकती है । __सुखोपभोग में बाधक वस्तुएँ एक बात खास तौर से विचारणीय यह है कि जब तक सुखोपभोग में बाधक वस्तुओं का विवेकपूर्वक त्याग नहीं किया जाएगा, तब तक सुख-सुविधा के लिए कल्पित वस्तुओं का ढेर भले ही हो जाए, सुख का समुचित उपभोग नहीं हो सकेगा। सुखोपभोग में विशेषतया बाधक वस्तुएँ ये हैं (१) अवांछनीय अभिवृद्धि, (२) अनुपयुक्त आकांक्षाएँ, और (३) निरंकुश भोगवाद । हम क्रमशः इन पर विचार करेंगे १. अवांछनीय अभिवृद्धि-धन, साधन आदि की अभिवृद्धि के लिए सामान्यतया सभी लोग इच्छुक रहते हैं, परन्तु यह ध्यान नहीं रखा जाता कि अभिवृद्धि किस सीमा तक हो । अभिवृद्धि जब सीमातिक्रमण कर जाती है, तब वही अभिवृद्धि चिन्ता, दुःख, आफत और समस्या बन जाती है । नदियों और तालाबों में पानी अत्यधिक बढ़ जाने पर वह दोनों तटों या पालों को लाँघकर जब बाढ़ का रूप ले लेता है तो गाँवके गाँव तबाह कर देता है, वह प्रलयंकर बना हुआ जल लाभ के बजाय धन, जन और साधनों की अपार क्षति कर देता है । नौका में पानी बढ़ जाए तो वह उसे ले डूबता है, इसी तरह घर में भी पानी बढ़ जाए तो घर की सभी वस्तुओं को सड़ा देता है। शरीर में चर्बी बढ़ जाने से जो स्थूलता आती है, वह आँखों को भले ही सम्पन्नता का चिन्ह लगे, मोटा आदमी तोंद बढ़ जाने के कारण भले ही अपनी समृद्धि और सम्पन्नता की शेखी बघारे, पर यह बढ़ा हुआ भार प्रत्येक दृष्टि से असुविधा ही उत्पन्न करता है । सूजन आ जाने से किसी अग की स्थूलता बढ़ सकती है, पर उससे किसी को कोई सुविधा या प्रसन्नता नहीं हो सकती। इसी प्रकार आज येन-केन-प्रकारेण सुख-सुविधा के कल्पित साधनोंधन, यश, वैभव, सामग्री आदि भौतिक साधनों की वृद्धि के लिए होड़ लगी हुई है, इससे सम्पन्नता बढ़ी है, यह कहा जाता है, पर इस पर से यह नहीं कहा जा सकता कि इससे सुख-शान्ति, सन्तोष या प्रसन्नता बढ़ी है। परन्तु अवांछनीय तरीकों से तथा सीमातिक्रमण करके हुई अभिवृद्धि जीवन में असन्तुलन पैदा करती है। इस अभिवृद्धि की तुलना में वह सामान्य स्थिति ही अच्छी थी, जिसमें असन्तुलन उत्पन्न होने की आशंका तो नहीं थी। उदाहरणार्थ-मस्तिष्क पर चिन्ताओं का भार बढ़ने की बात को यहाँ छोड़ दें तो भी मस्तिष्क (खोपड़ी) के भीतर भरे हुए पदार्थ के भार और विस्तार दोनों में ही आज अभिवृद्धि हो रही है। मस्तिष्कीय भार की इस अभिवृद्धि के कारण लाभ नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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