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धर्म ही शरण और गति है : ३२१
में मुझे कष्टों से उबारने वाला या शरण देने वाला कोई नाथ नहीं था। इसलिए मैं धर्मरूपी नाथ की शरण लेकर सनाथ बनने हेतु दीक्षित हुआ हूँ।"
यह बात सुनते ही श्रेणिक मुस्कराकर कहने लगा-"तब तो चलिए मेरे राज्य में, मैं आपका नाथ बनता हूँ। किसी बात की कमी नहीं रहने दूंगा, सब प्रकार के सुख-भोगों से, सुविधाओं से आपको सम्पन्न बना दूंगा।"
अनाथी-'राजन्! आप स्वयं अनाथ हैं, आप कैसे मेरे नाथ बनेंगे ?"
श्रेणिक-"मेरे पास प्रचुर धन, वैभव तथा सभी प्रकार के सुख-साधन हैं, विपुल अन्तःपुर हैं, दास-दासियाँ हैं, भोगों की सब सामग्री है, मैं कैसे मान लूकि मैं अनाथ हूँ ?"
अनाथी-"राजन् ! आप सनाथ और अनाथ के रहस्य को नहीं जानते, इसी लिए अपने आपको इन भौतिक सुख-सामग्रीयुक्त होने से सनाथ समझते हैं, किन्तु भौतिक सुख-सामग्री की मेरे पूर्वाश्रम में क्या कमी थी? मेरे पिता नगर के प्रमुख धनाढ्यों में से एक थे। मेरा परिवार सभी भौतिक सुखों से सम्पन्न था। मेरे यहाँ भी मेरे बहुसंख्यक पारिवारिक जनों के अतिरिक्त दास-दासी भी कम न थे । फिर भी मैं अपने को अनाथ महसूस करता था ?"
श्रेणिक-"इतनी सुखसामग्री होते हुए भी आप अनाथ कैसे थे ? आपने उसे क्यों छोड़ा ?"
____ अनाथी— “सुनिये तो, मैं उसका रहस्य बताता हूँ। एक बार मेरे नेत्रों में भयंकर पीड़ा उत्पन्न हुई । सारे शरीर में भयंकर जलन होने लगी। जैसे कोई मेरी
आँखों में शूल भौंक रहा हो, इस प्रकार की दारुण वेदना से पीड़ित देखकर मेरे पिताजी ने एक से एक नामी मंत्र-तंत्रविशारदों, चिकित्सकों, शल्यक्रिया में कुशल जर्राहों, आदि को बुलाकर दिखाया। उन्होंने अपनी ओर से भरसक उपचार किया, फिर भी मेरी वेदना वे दूर न कर सके। मेरे पिता ने मेरे रोग को मिटाने के लिए प्रचुर धन पानी की तरह वहाया, फिर भी मुझे उस कष्ट से वे मुक्त न कर सके। यह मेरी अनाथता थी। मेरे बड़े-छोटे भाई, मेरी सहोदर बहनें, मेरी माता और मेरी धर्मपत्नी ये सब मेरी पीड़ा देख-देखकर आंसू बहाते थे । वे सब मेरी सेवा में अहर्निश तैनात रहते थे। कोई भी मेरी पीड़ा के कारण सुखपूर्वक नहीं सोता था। नींद तो मेरी वैरिन बन गई थी। इस भयंकर पीड़ा के मारे मेरा एक क्षण भी सुख-शान्ति में नहीं बीतता था। इस प्रकार मेरे सभी हितैषी परिजन मेरी शुश्रुषा में जुटे हुए थे, परन्तु कोई भी मेरे दुःख को दूर न कर सका । ये सब मेरी अनाथता के कारण थे।
"इतनी सुख-भोगसामग्री, धन-वैभव और परिवार आदि होते हुए भी बताइए राजन् ! मेरे दुःख को वे कम न कर सके। मैं दुःखों से पीड़ित होकर अपने को अनाथ-सा महसूस कर रहा था। इसी बीच एक दिन मैंने चिन्तन किया- 'इतनी पीड़ा देने वाला कौन है ? कौन-सा मूल कारण है दुःख का ? आत्मा ही अशुभकर्मों
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