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धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ३५
अशक्त और निर्बल का अस्तित्व हर हालत में और हर जगह असुरक्षित ही रहता है । जो बीज कमजोर होता है, वह मिट्टी में दबकर सड़ने लगता है, हवा, पानी, धूप आदि कोई भी उसके विकास में सहयोग नहीं देते और अन्त में वह नष्ट हो जाता है ।
कोई भी प्रयोजन संकल्प या इच्छा मात्र से सिद्ध नहीं हो जाता । किसी भी व्यक्तिगत या सार्वजनिक उद्देश्य में सफलता भी अनायास ही नहीं मिल जाती । उसके लिए शक्ति लगानी पड़ती है । आद्य शंकराचार्य ने 'सौन्दर्य लहरी' में बहुत ही सुन्दर उक्ति कही है
शिवः शक्त्या युक्तो, यदि भवति शक्तः प्रभवितुम् ।
न चे देवं देवो, न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ॥
"शिव यदि शक्ति से युक्त हों, तभी समर्थ होते हैं । ऐसा न हो तो वे जरा भी हिलने-डुलने में समर्थ नहीं होंगे ।"
बन्धुओ ! यहाँ 'शिव' हमारे मन का संकल्प है, वह शक्ति - क्रियाबल के सहित हो तभी कृतकार्य हो सकता है । सशक्त होकर मनुष्य अपने संकल्प को पूर्ण कर सकता है । संसार में सभी उत्तम गुण और विकास के अवसर हैं, उनकी उपलब्धि के लिए सुयोग्य और सुपात्र बनने हेतु शक्ति का प्रकटीकरण करना पड़ता है । एक अंग्रेजी कहावत है -- " किसी वस्तु की कामना करने से पूर्व उसके लिए उपयुक्त, सुयोग्य . और सुपात्र बनो ।" हर प्रकार की योग्यता शक्ति से ही प्राप्त होती है । लोहे का औजार बनने पर उसके द्वारा पत्थर तक तोड़ा जा सकता है । किन्तु लोहमात्र में तो यह गुण नहीं होता, लोहे को अनेक प्रकार की सामग्रियों से प्रस्तुत, गठित और तेज करना पड़ता है; तब वह लोहा इस्पात होकर काटता है, इसी प्रकार मनुष्य भी जब अनेक शक्तियों से प्रस्तुत, एकाग्र और प्रशिक्षित होता है, तभी वह भगीरथ कार्यों को सम्पन्न कर पाता है ।
निर्बलता एक ऐसा अपराध है, पाप भी है, जो लोगों को पथभ्रष्ट कर देता है, विपदा के गर्त में धकेल देता है । प्रकृति के विधान में निर्बल और अशक्त लोगों को दण्डस्वरूप अनेक खतरे और हानियाँ उठानी पड़ती हैं। अतः सबलता ही सजीवता है, और निर्बलता निर्जीवता है । जीवन का एक भी अंग शक्तिहीन होने से निर्बल हो जाता है । सर्वांगीण उन्नति के लिए आवश्यकतानुसार सब प्रकार के बलों का संग्रह करना चाहिए । हाँ, बल-संग्रह के साथ उसका सदुपयोग होना आवश्यक है । व्यावहारिक जीवन को सफल, सुखी और सुरक्षित बनाने के लिए भी बल-संवर्द्धन की आवश्यकता है । जैन सिद्धान्त में पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, शरीर, श्वासोच्छ्वास और आयु इन १० प्राणों को 'बल' कहा गया है । अतः व्यावहारिक जीवन में सफलता के इच्छुक व्यक्तियों को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक दुर्बलता को दूर करना चाहिए ।
स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय युवकों की निर्बलता देखकर उसे निवारण
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