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________________ ३६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ करने हेतु आह्वान किया था-'बलमुपासस्व' बल की उपासना करो। युवको ! सर्वप्रथम आपको बलवान बनना पड़ेगा। बल ही आपके लिए उन्नति का एकमात्र मार्ग है। इसी से आत्मा और परमात्मा के अधिक निकट पहुँचा जा सकता है । अब देखना यह है कि कौन-सा बल, किस समय, कैसे और कितना उपयोगी हो सकता है ? दूसरे बल और धर्मबल आपने देखा होगा कि जब भी कोई व्यक्ति किसी को कष्ट पहुँचाता है, दुःख देता है, हैरान करता है, या उसके मन के प्रतिकूल चलता है, उसे नुकसान या चोट पहुंचाता है तो वह क्या करता है ? वह भी अपना शरीर-बल अजमाता है । उस समय वह सोचता है-मुझ में शरीरबल क्या कम है ? वह भिड़ जाता है, कष्ट आदि देने वाले से । वह भी चोट पहुंचाता है। बहुत-सी बार जब वह देखता है कि प्रतिपक्षी मेरे से शरीरबल में बढ़कर है, तब वह शरीरबल को छोड़कर धनबल या बुद्धिबल का उपयोग करता है। धन के द्वारा किसी गुडे या बलिष्ठ व्यक्ति को खरीदकर वह उस पर अपना जोर अजमाता है। कई लोग जब भूकम्प, बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रकोपों के शिकार हो जाते हैं, तब शरीरबल या धनबल इतना काम नहीं आता, न ही बुद्धिबल काम आता है, उस समय धर्मबल ही काम आता है। कई बार अकेले एक व्यक्ति का तन-बल काम नहीं करता, उस समय जन-बल ही काम आता है। लड़ाई में एक व्यक्ति के बल से काम नहीं होता वहाँ जनबल ही काम आता है । परन्तु अकेला जनबल भी युद्ध में काम नहीं आता, वहाँ सैनिकों का मनोबल ऊँचे दर्जे का न हो तो अकेला जनबल कुछ नहीं कर सकेगा। उस जनबल की पराजय होते क्या देर लगेगी? मनुष्य के पास शरीर-बल ही अधिक हो, परन्तु उस पर कोई नियन्त्रण न हो, तो वह बल राक्षसी बल कहलाता है । देखा गया है कि जिनमें केवल शरीरबल ही होता है, बुद्धिबल आदि न हो तो उस शरीर-बल के अहंकार के कारण वह व्यक्ति दुनिया में दूसरों को पीड़ित करता है, सताता है, दुःखित करता है। कहते हैं, नारकी जीवों में शरीरबल बहुत होता है, पर अन्य बल उनमें नहीं होता । दैत्यों और राक्षसों में शरीर-बल बहुत होता है, पर वह दूसरों को दुःखी करने के लिए होता है। पाश्चात्य साहित्यकार शेक्सपीयर (Shakespeare) ने इस सम्बन्ध में सुन्दर चिन्तन प्रस्तुत किया है-- "Oh ! it is excellent to have a giant's strength but it is tyrannous to use it like a giant." "ओह ! किसी व्यक्ति में दैत्य का-सा बल हो, यह तो बहुत अच्छा है, लेकिन उसका उपयोग एक दैत्य की तरह करना अत्याचारयुक्त होगा।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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