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धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ३७
इसी तरह शारीरिक बल मनुष्य की अपेक्षा पशुओं में अधिक होता है, पर वे अपने उस बल का उपयोग दूसरे की भलाई में नहीं कर सकते, या तो वे उस बल का उपयोग दूसरों से लड़ने-भिड़ने में करते हैं, या फिर दूसरों को मारने और सताने में करते हैं। अथवा बोझा ढोने वाले या सवारी के काम में आने वाले पशुओं के नकेल, लगाम या अंकुश डालकर उनके बल से मनुष्य जबरन काम लेकर लाभ उठाता है । पशुओं में शरीर-बल के सिवाय अन्य कोई बल नहीं होतो । बौद्धिक बल उनका बहुत ही अल्प होता है। वे अपने शरीर-बल पर कोई नियन्त्रण नहीं रख सकते। इसीलिए अनर्थ ही पैदा होते हैं।
इसी प्रकार बुद्धिबल और हृदयबल इन दोनों में अकेला बुद्धिबल हो तो वह दूसरों को ठगने, धोखा देने, षड्यन्त्र करने आदि में लगता है। कोरा हृदयबल हो तो अन्धविश्वास की ओर झुक जाता है, अतिभावुकतावश कई भ्रान्तियों का शिकार हो जाता है, बहकावे में आ जाता है ।
निष्कर्ष यह है कि शरीर-बल को मनुष्य का मुख्य बल नहीं कहा जा सकता। आखिर मनुष्य अपने शरीर से बड़ा होकर कितना बड़ा होगा? पद्मपुराण में ठीक ही कहा है
'सार्वभौमोऽपि भवति खट्वामात्र परिग्रहः' __'कोई मनुष्य समस्त भूमण्डल का राजा ही क्यों न हो, आखिर तो एक खाटभर भूमि ही वह रोक सकेगा ?'
शारीरिक बल से मनुष्य कितना काम करेगा? आधुनिक वैज्ञानिकों के मत से मनुष्य की शारीरिक क्रिया-शक्ति केवल अश्वशक्ति (हॉर्सपावर) के जितनी है। वह दो हॉर्स पावर के इंजन के जितना भी तो काम नहीं कर सकता। शरीर से वह कौन-सा अधिक पुरुषार्थ सिद्ध कर लेगा?
संसार में बाहुबल की अपेक्षा बुद्धिबल की श्रेष्ठता सर्वविदित है। युक्ति से जो कार्य हो सकता है वह शरीर-बल से नहीं हो सकता। अंग्रेजी में एक लोकोक्ति है
'एक अच्छे मस्तिष्क से सौ हाथों का काम हो सकता है।' अर्थात् एक बुद्धिबल वाला सौ आदमियों का काम अकेला अपनी बुद्धि से कर लेता है अथवा सौ आदमियों से काम ले सकता है । एक पाश्चात्य विचारक का कथन है
"बाहुबल की अपेक्षा विचारबल अधिक प्रभावशाली होता है।"
इन सब बातों पर विचार करने से यह मानना पड़ेगा कि शरीर-बल ही मनुष्य का सर्वस्व नहीं है । उससे जीवन का सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता। मानवीय शक्तियों का विकास बाहर से नहीं, भीतर से होता है । उसकी बाहर की आँखें उतना नहीं देखती, जितना भीतर की देखती हैं।
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