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________________ ३८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ यह एक भ्रान्त धारणा है कि किसी को नुकसान पहुंचाने का नाम ही बल है। ऐसे कार्य प्रायः लुक-छिपकर या परोक्ष में किये जाते हैं। बेखबर आदमी पर छिपकर हमला करके तो कोई सशक्त आदमी के भी प्राण हरण कर सकता है। बगल में छुरी भौंक देना, विश्वासघात करके हमला बोल देना-कोई शक्ति का प्रतीक नहीं है। ऐसे नकली बल अजमाने से तो प्रतिपक्षी के मन में द्वेष, घृणा, ईर्ष्या आदि की भावना पैदा होती है। ऐसे धोखेबाज का बल समय आने पर किसी के साथ कड़ा मुकाबला करना हो तो, स्वयं को धोखा दे देता है। इसलिए इस बल पर कोई भरोसा नहीं करना चाहिए। कई लोग अपने पर आये हुए आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःखों को मिटाने के लिए अथवा इहलौकिक या पारलौकिक सुखों की लिप्सा से प्रेरित होकर जप-तप करके अपना जपबल या तपोबल बढ़ाते हैं। मगर उनके साथ निष्कांक्ष, निःस्वार्थ धर्मबल न होने से ये बल लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए भले ही उपयुक्त हों, उनसे बन्धन-मुक्ति नहीं होती। धन का बल भी भौतिक है। इस बल का उपयोग भी मानव प्रायः अपनी स्वास्थ्य-रक्षा, शरीर-रक्षा या अन्य वैषयिक सुखों की वृद्धि के लिए करता है। जब धनबल के साथ धर्मबल नहीं होता तब वह अपने धन का उपयोग ऐशो-आराम, मौजशौक आदि में प्रायः करता है। अगर धनबल या तनबल के साथ धर्मबल हो तो उस धन का उपयोग दूसरों के हित के लिए, परोपकार सेवा आदि में होता है। ये और इस प्रकार के अनेक बल हैं, मनुष्य जिनका उपयोग निरंकुश होकर करता है तो वे अनर्थकर सिद्ध होते हैं, और धर्म का अंकुश रखकर करता है तो वह बल सार्थक होता है। आत्मबल : धर्मबल की फलश्रुति जिसके जीवन का भौतिक या व्यावहारिक पक्ष प्रबल होता है, उसका आध्यात्मिक पक्ष निर्बल होता है । आध्यात्मिक पक्ष की प्रबलता हो तभी जीवन के सभी अन्य बल प्रबल होते हैं। उसका जीवन भी सुदृढ़, सिद्धान्तों पर अविचल एवं परीषहों के समय अडिग रहता है। आत्मा सभी शक्तियों का केन्द्र है, वही समस्त शक्तियों का पावर-हाउस है, जन्मभूमि है। उसी को व्यावहारिक भाषा में ब्रह्मबल, आत्मबल, मनोबल, हृदयबल अथवा प्राणबल कहा जाता है। यही धर्मबल का फल है। जिसका प्राणबल या आत्मबल जागृत हो, उसे कोई भी शक्ति परास्त नहीं कर सकती। एक आत्मवीर सहस्रों विरोधियों का सामना कर सकता है। ब्रिटिश सरकार जैसी प्रबल शक्ति महात्मा गांधी की आत्मशक्ति के सामने टिक नहीं सकी । इसीलिए आज से हजारों वर्ष पहले ऋषि विश्वामित्र ने तपस्वी वशिष्ठ से पराजित होकर कहा था "धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम् ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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