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धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ३६
'क्षत्रिय बल को धिक्कार है, ब्रह्मतेज का बल ही वास्तव में बल है । 'यह ब्रह्मतेज का बल ही आत्मबल है, इसकी सहायता से वह जो कर सकता है, वह एटमबम से भी सम्भव नहीं है । आत्मबल के प्रभाव से मनुष्य असाधारण कार्य-स्वपरकल्याण का असीम कार्य भी कर सकता है । मुक्तात्माओं में अनन्त आत्मबल होता है । कवि की अन्तरात्मा भी स्पष्ट बोल उठती है
आतमबल ही है सब बल का सरदार ॥ ध्रुव ॥ आतमबल वाला अलबेला, निर्भय होकर देता हेला। लड़कर सारे जग से अकेला, लेता बाजी मार ॥ आतम० ॥१॥ कैसी ही हो फौज भयंकर, तोप मशीनें हों प्रलयंकर । आतमबली रहता है बेडर, देता सबको हार ॥ आतम० ॥२॥
सचमुच, आत्मबल असीम शक्ति से सम्पन्न होता है। शारीरिक बल वाले हजारों आदमी एक तरफ हों, एक तरफ सिर्फ एक आत्म-बली हो, तो आत्मबली सबको मात कर देता है। शरीर-बल, सत्ता-बल अथवा धन-बल वाले कदाचित् आत्मबली पर आतंक ढहाएँ, जुल्म करें, चाहे भयंकर से भयंकर अत्याचार करें तब भी वह समभाव से सबको सहन कर लेता है। उसके आत्म-बल का लोहा उन्हें मानना पड़ता है। जिस प्रकार लोहे के ठोस धन पर हजारों चोट पड़े तो भी उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता, उसी प्रकार आत्मबली पर राक्षसी बल वाले हजारों चोटें करें, तब भी वे उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाते ।
शरीर से अत्यन्त दुर्बल व्यक्ति भी आत्मबल के सहारे महान बन जाता है । कई व्यक्तियों के पास धन-बल, जन-बल नहीं होता, जप-तप का बल भी कम होता है, विद्या-बल एवं बाहु-बल भी नाममात्र का होता है। किन्तु उनका आत्मबल असाधारण होता है । जब कोई भी बल काम नहीं देता तो आत्मबल या परमात्म-बल ही उसका रक्षक होता है । महाकवि सूरदास ने अपनी अनुभूति के बल पर कहा है--
सुने री मैंने निर्बल के बल राम ॥ध्रव ॥ द्र पद सुता निर्बल भई ता दिन, गह लाए निज धाम । दुःशासन की भुजा थकित भई, वसन रूप भए श्याम ॥ सुने री""। जब लग गजबल अपनो राख्यौ, नैक सर्यो नहिं काम । निर्बल ह, बल राम पुकार्यो, आए आधे नाम ॥ सुने री"। अपबल, तपबल और बाहुबल, चौथो बल है दाम । 'सूर' किशोर कृपा ते सब बल, हारे को हरि नाम ॥ सुने री।
आत्म-बल कहें, परमात्म-बल कहें, राम-बल कहें या ब्रह्म-बल कहें बात एक ही है । यह बल निर्बलों के लिए सर्वोत्तम वरदानरूप है। जिस समय द्रौपदी पर
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