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________________ ४० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ दुःशासन आदि कौरवों द्वारा अत्याचार हो रहा था, उसके वस्त्र खींचे जा रहे थे, उस समय सब ओर से निर्बल, निराश द्रौपदी ने परमात्म-बल की शरण ली, तो एक महान् चमत्कार हुआ। द्रौपदी के वस्त्र ज्यों-ज्यों खींचे जा रहे थे, त्यों-त्यों बढ़ते जा रहे थे। उन्हें खींचते-खींचते दुःशासन की भुजा थक गई, आखिर दुःशासन आदि कौरवों का दैत्यबल पराजित हो गया। इसी प्रकार राजगृहनगर के श्रमणोपासक सुदर्शन पर जब यक्षाविष्ट अर्जुनमाली मुद्गर घुमाता हुआ प्रहार करने आया तब सुदर्शन के पास कौन-सा बल था जिसने अर्जुनमाली के मुद्गर लिए,हुए हाथ को वहीं रोक दिया? वह ऊपर क्यों नहीं उठ सका? यही आत्मबल या परमात्मबल सुदर्शन के पास था, जिसने यक्षबल को परास्त कर दिया। भागवत्पुराण में एक भगवद्भक्त हाथी का वर्णन आता है। उसमें इतनी गहरी समझ तो नहीं थी कि वह भक्ति के गूढ़ रहस्य को समझ सके । वह इतना ही समझता था, भगवान् का नाम लेने से वे प्रसन्न हो जाते हैं, और विपत्ति आ पड़ने पर वे सहायता करते हैं । जैसे लोक-व्यवहार में आम आदमी अपना मतलब सिद्ध करने के लिये दूसरों को प्रसन्न रखता है, उनकी खुशामद करता है, वैसे ही यह हाथी भगवान् को खुश रखने लगा। यह धर्म और भक्ति को दिखावा समझता था। एक दिन वह हाथी एक जलाशय में पानी पीने गया । वहाँ एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। पानी में हाथी का जोर नहीं चल सकता था। हाथी यद्यपि बलवान् था। उसने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरा शरीर-बल लगा भी दिया। मगर पानी में मगरमच्छ का जोर । था वह हाथी को गहरे पानी तक खींचे ले गया। दोनों की खींचातानी हुई, लेकिन मगरमच्छ जल का जीव था, उसका बल मफल हो रहा था। उसके आगे हाथी की एक न चली। वह अपनी पूरी ताकत लगाकर निराश हो गया तब पुकारने लगा-"भगवान् ! मुझे बचाओ। मगरमच्छ मुझे ले जा रहा है । वह मुझे मार डालेगा।" हाथी ने आर्तनाद करके भगवान् को बहुत पुकारा, मगर किसी भी कारणवश भगवान् ने उसकी पुकार पर कोई ध्यान नहीं दिया। हाथी का धैर्य जवाब देने लगा। वह श्रद्धाहीन होकर सोचने लगा-'मालूम होता है कि मैंने भगवान् पर भरोसा करके नाहक उनकी इतनी खुशामद की। मैं धोखे में रहा । यहाँ तो भगवान् के आने या सहायता देने के कोई आसार नजर नहीं आते । मैं भगवान् को बराबर पुकारता चला जा रहा हूँ फिर भी यह मगरमच्छ मुझे खींचे ही चला जा रहा है।' हाथी की भक्ति दिखावटी थी, वह कामनामूलक थी, उसकी नींव मजबूत नहीं थी। इसलिए वह उड़ने लगी। किन्तु हाथी ने अन्त में सोचा-'अरे ! मैं तो केवल जीभ से भगवान् को रट रहा हूँ, पर मेरे अन्तःकरण में कहाँ स्थान है भगवान् को ? अन्तर में भगवान होते तो मैं अपने शरीरबल का अहंकार करके मगरमच्छ के साथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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