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धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ४१
द्वन्द्वयुद्ध में क्यों उतरता? एक ओर मैं अपने शरीरबल को भी महत्त्व दे रहा हूँ, दूसरी
ओर भगवान् को भी पुकार रहा हूँ। मुझे परमात्मबल पर इतना भरोसा नहीं है, जितना अपने शरीरबल पर है । अगर मैं अपनी समस्त शक्तियों को भगवान के चरणों में समर्पित कर देता तो अवश्य ही मुझे परमात्मबल प्राप्त होता। परन्तु मैंने मल-मूत्रादि से भरे इस शरीर के बल पर अत्यधिक विश्वास किया, इसी कारण शरीर पर ममत्व करके मैंने परमात्मबल को भुला दिया।'
हाथी की विचारधारा बदली, वह मन ही मन भगवान् को लक्ष्य करके विनयपूर्वक कहने लगा-"प्रभो ! अब तक मैं भ्रम में था । मैं आपकी दिखावटी भक्ति करता था। मझे अपने शरीरबल का अहंकार था। मैं आपके बल को भूला बैठा था। इसी बहाने कदाचित् आप मेरी भक्ति की परीक्षा कर रहे थे। प्रभो ! मेरे में कुछ भी बल नहीं है । यह शरीर भी मेरा नहीं है, चाहे मगरमच्छ इसे ले जाए और खा जाए, मैं अपना शरीरबल कुछ भी नहीं लगाऊँगा। शरीर चला जाएगा तो मेरा क्या चला जाएगा ? प्रभो ! शरीर चाहे चला जाए, परन्तु आप न जाने पाएँ । आप मेरे हृदय में रहें, मैं शरीर देकर भी बदले में आपको लेकर घाटे में नहीं रहूँगा।"
___ इस प्रकार विचार करके हाथी ने भगवान् के नाम का उच्चारण प्रारम्भ किया । अभी आधे नाम का उच्चारण किया था कि हाथी में एक प्रकार का अनिर्वचनीय बल प्रकट हुआ । उस बल के प्रभाव से हाथी अनायास ही छूट गया । वह विपत्ति से मुक्त होकर आनन्दमग्न हो गया । जैन-सिद्धान्त भी कहता है-पाँच ह्रस्व अक्षरों (अ इ उ ऋ लु) के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय में क्षीणमोही अयोगीकेवली आत्मा अनन्तवीर्य सम्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
बन्धुओ ! हाथी ने जब अपने शरीरबल का मोह और अहंकार छोड़कर भगवद्बल का सहारा लिया तभी वह बन्धनमुक्त हो सका, इसी प्रकार आप भी जब शरीरबल का मोह-ममत्व और अहंकार छोड़कर एकमात्र आत्मभाव में रमण करेंगे, तभी वह आत्मबल या परमात्मबल आयेगा । थोड़ा-सा भी परमात्मबल आ जाता है तो कितना चमत्कार हो जाता है, पूर्ण परमात्मबल प्राप्त हो जाए तब तो कहना ही क्या ?
आत्मबल या परमात्मबल का मूलस्रोत : धर्मबल परन्तु एक बात यहां स्पष्ट कर दूं, जिस आत्मबल या परमात्मबल की महिमा का वर्णन मैं अभी कर गया हूँ, उसका मूलस्रोत-धर्मबल ही है। धर्मबल के बिना परमात्मबल या शुद्ध आत्मबल तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। धर्मबल के बिना आत्मबल या परमात्मबल आ नहीं सकता। डॉ० राधाकृष्णन् ने बताया है—"धर्म की शक्ति ही जीवन-शक्ति है। धर्म उस आध्यात्मिक अग्नि की ज्वाला को, जो प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर जलती है, प्रज्वलित करने में सहायता करता है ।" अहिंसा, सत्य आदि शुद्धधर्म आत्मा से ही प्रकट होता है; यही कारण है कि मुनि गजसुकुमार, स्कन्दक आदि को जब यातनाएँ दी गईं तो उनकी आत्मा में अपूर्व शक्ति आ गई, जिसके कारण वे समभाव से परीषहों और उपसर्गों को सहन कर सके ।
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