SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के जीवन का एक प्रसंग है। स्वामीजी को कैंसर हो गया था। उसकी असह्य पीड़ा थी। भक्तों से उनकी पीड़ा देखी नहीं जाती थी। किसी भक्त ने स्वामीजी से प्रार्थना की-"स्वामिन् ! अगर आप अपनी बीमारी को मिटाने के लिए माँ काली से प्रार्थना करें तो आपकी बीमारी शीघ्र ही दूर हो जाएगी। आप स्वस्थ हो जायेंगे। आपको इतनी असह्य पीड़ा नहीं भोगनी पड़ेगी।" स्वामी रामकृष्ण ने कहा- "मैं इस रोग-निवारण के लिए माता से प्रार्थना करके उन्हें तकलीफ देना नहीं चाहता। क्योंकि मैंने ही दुष्कर्म किये हैं, उनका अशुभफल भोगने से बचने के लिए मैं काली माता को तकलीफ हूँ, यह अच्छा नहीं। अगर मेरे कर्म अशुभ हैं तो उनका फल मुझे ही भोगना चाहिए। फिर हड्डी-मांस और रक्तादि से भरे घिनौने गंदे शरीर को बचाने के लिए मैं भगवान् या भगवती से प्रार्थना करूं? यह कदापि नहीं हो सकता। मुझे कोई कष्ट नहीं है, बल्कि यह प्रसन्नता की बात है कि प्रभु ने मुझे पूर्वकृत दुष्कर्म का फल भोगने का अवसर दिया है ।" स्वामी रामकृष्ण को अनेक लोगों ने इसके लिए कहा ; मगर उन्होंने किसी की न मानी और समझ-बूझपूर्वक शान्ति और समता के साथ केंसर रोग की असह्य पीड़ा सहन की। बन्धुओ ! रामकृष्ण परमहंस ऐसी कौन-सी विद्या या मंत्र जानते थे, जिसके बल पर उन्होंने इतनी पीड़ा सहन की? वह और कुछ नहीं था, अन्तर् से उत्पन्न हुई आत्मबल की ज्योति थी, जिसके आधार पर इतनी असह्य पीड़ा उन्होंने सहन की। धर्मबल द्वारा सुषुप्त आत्मबल का प्रकटीकरण मैं कह रहा था कि आप सबका यह अनुभव है कि शक्ति (पावर) सदैव अन्तर से पैदा होती है, वह किसी से माँगने पर नहीं मिलती। शक्ति अपने अन्दर ही सोई हुई है, जरूरत है उसे जागृत करने की। दियासलाई में आग की सत्ता पड़ी हुई है, जरूरत होने पर व्यक्ति को रगड़कर आग प्रकट करनी पड़ती है, वैसे ही मनुष्य की अन्तरात्मा में असीम बल है, पर वह सुषुप्त है, उसे कठोर क्रिया के द्वारा प्रकट करना है। __ अन्तरात्मा में सुषुप्त आत्मबल धर्मबल द्वारा कैसे प्रकट होता है, इसके लिए अमृतसर की एक सच्ची घटना लीजिए अमृतसर के कटरा जैमलसिंह में अस्त-व्यस्त वस्त्र और खुले सिर वालो एक महिला कातरभाव से इधर-उधर भागती यह कहती फिर रही थी—"है कोई माई का लाल ? जो मेरी बच्ची को इन दुष्टों के चंगुल से बचा ले । हाय, मैं तो लुट गई।" जब वह निराश होकर खंभे से सिर टकराती और चीख उठती तो लोग कहते“आह ! बेचारी पगला गई है। शायद किसी मनचले ने इसकी इज्जत पर हमला कर दिया है।" कुछ लोग दूर से ही अपनी दूकानों पर बैठे सहानुभूति व्यक्त करते रहे, लेकिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy