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८१. सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष मोक्ष-प्राप्ति के मूलाधार धर्म के सम्बन्ध में चर्चा करूंगा। यद्यपि इस गाथा के चारों चरणों में धर्म का विविध पहलुओं से वर्णन किया गया है । धर्म जीवन के हर क्षेत्र में, हर प्रवृत्ति में, हर विचार और आचार में रहना चाहिए, इसी सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर महर्षि ने इस गाथा में और अन्तिम गाथा में भी धर्म के सम्बन्ध में अपने चिन्तनयुक्त जीवन-सूत्र प्रस्तुत किये हैं । इस गाथा के प्रथम चरण में महर्षि ने बताया है
'सव्वा कला धम्मकला जिणाई' -समस्त कलाओं को धर्मकला जीतती है, यानी धर्मकला सर्वश्रेष्ठ कला है, कलाओं में सर्वोपरि है।
गौतमकुलक का यह सड़सठवाँ जीवन-सूत्र है।
धर्मकला क्या है ? यह जीवन की सर्वश्रेष्ठ कला क्यों है ? अन्य कलाएँ धर्मकला की समता क्यों नहीं कर सकतीं ? इन सब पहलुओं पर मैं गहराई से चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
कला और जीवन का सम्बन्ध किसी भी विषय को व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करने का नाम कला है। मानवजीवन के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। आज से ही नहीं, प्रागऐतिहासिक काल से-भगवान ऋषभदेव के युग से विविध कलाएं मानव-जीवन को सुन्दर ढंग से यापन करने हेतु जीविका का साधन रही हैं। उनमें महिलाओं की ६४ और पुरुषों की ७२ कलाएँ होती हैं। महिलाओं की कलाओं में संगीत, नृत्य, वाद्य, पाक आदि कलाएँ प्रमुख हैं तथा पुरुषों की ७२ कलाओं में युद्ध, वाणिज्य, चित्र, साहित्य आदि कलाएँ प्रमुख हैं। ये सब कलाएँ जीवन को सरस, सरल और सुखपूर्वक व्यतीत करने में सहायक होती थीं। जीवन को मांजने, विशुद्ध और विकसित करने के लिए भी इन कलाओं का होना आवश्यक माना जाता था। भारतीय संस्कृति के उन्नायक महर्षि भर्तृहरि ने कला के अभाव में मनुष्य को पशु की संज्ञा देते हुए कहा है
साहित्य-संगीत-कलाविहीनः । साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाणहीनः॥
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