SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Education International ( २४ ) हिंसा पसत्तस्स सुधम्मनासो, चोरी पसतस्स सरीरनासो । तहा परत्थीसु पसत्तयस्स, सव्वस्स नासो अहमा गईय ॥ १८ ॥ हिंसक क्रूर मनुज धर्म का करता नाश । तस्कर को भय चिन्ता से है देहविनाश || नाम-धाम सब नष्ट परस्त्रीगामी के । सदा अधम गति होती विषय-कामी के ॥ दाणं दरिद्दस्स पहुस्स खन्ती, इच्छानिरोहो य सुहोइयस्स । तारुन्नए इंदियनिग्गहो य, चत्तारि एयाणि, सुटुक्कराणि ॥ १६ ॥ निर्धन नर का दान, समर्थ की क्षमा प्रशम । सब सुख-साधन प्राप्त करे इच्छा का संयम ॥ इन्द्रिय - निग्रह करे जो भर यौवन में । अति दुष्कर ये चारों काज तीन भुवन में ॥ असासयं जीवियमाहु लोए, धम्मं चरे साहु जिणोवइट्ठ । धम्मो य ताणं सरणं गई य, धम्मं निसेवित्त सुहं लहंति ॥२०॥ क्षणभंगुर है कहा गया जग में जीवन । जिनवर - कथित, शुद्ध धर्म का करे आराधन ।। धर्म सभी का रक्षक वही शरण, गति रूप है । धर्माराधन करके पाते सौख्य अनूप है ॥ 00 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy