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२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
___ --साहित्य और संगीत कला से विहीन पुरुष सींग पूछ से रहित साक्षात् पशु है।
वास्तव में कला की आराधना-साधना मानव-जीवन को सुसंस्कृत और सरस बनाने के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। जीवन को सुन्दर, सरल, सरस और मधुर बनाना हो तो कला की आराधना के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है।
इस प्रकार कला का मानव-जीवन से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध जाने-अनजाने ही हो गया। आगे चलकर लोग संगीत, नृत्य, वाद्य, चित्र आदि ललित कलाओं को ही कला कहने के आदी हो गये, बाकी की कलाएँ या तो शिल्प में गतार्थ हो गईं, या फिर व्यवसाय के अन्तर्गत हो गईं। पश्चिम के सम्पर्क से ललित कलाओं को छोड़कर सिर्फ कला जीवन यापन की एक पद्धति या शैली बन गई, जीवन-शोधन की एक प्रक्रिया हो गई। इससे भी आगे बढ़कर कला भोग-विलास के साधनों एवं उपकरणों तथा सौन्दर्य प्रसाधन के अर्थ में प्रयुक्त होने लगी । परन्तु यह कला की विकृति है, कला की विसंगति है, जो कला को बदनाम करने के लिए तथा जीवन को विकृत बनाने के लिए है । इस प्रकार कला का मानव-जीवन से सम्बन्ध होने पर भी वह हितावह नहीं, जीवन के लिए श्रेयस्कर नहीं। कलात्मक जीवन : यह या वह ?
वास्तव में जिन्दगी जीना भी एक कला है। कई लोगों को यह अजीब-सा लगता है कि जिन्दगी तो हम स्वाभाविक रूप से जी ही रहे हैं, पर वह कला कैसे ? मैं कहता हूँ-- क्या कुत्ते, बिल्ली आदि पशुओं का-सा जीवन जीना अच्छा है ? या शानदार, सरस एवं मधुर जीवन जीना अच्छा है ?
सभी मनुष्यों के पास प्रायः हाथ, पैर, आँख, नाक, कान, जीभ आदि अवयव रहते हैं, गँवारों के पास भी, अमीरों के पास भी, और सुसंस्कृत शिक्षितों के पास भी। किन्तु गँवार या फूहड़ व्यक्ति जीवन को कलात्मक ढंग से जीना नहीं जानते, और न ही वे अमीर जानते हैं, जिनके घर में पैसे की कमी नहीं, कार है, बंगला है, ऐशोआराम की सभी वस्तुएँ हैं । पर यह सब होते हुए भी ऐसा लगता है कहीं कोई कमी है। कहीं न कहीं शृंखला की कड़ियाँ टूटी हुई हैं । साधन सम्पन्न होते हुए भी जीवन का सच्चा आनन्द नहीं । किसी तरह से जी रहे हैं। रो-झोंककर जीना उत्कृष्ट रूप से जीना नहीं है । उत्कृष्ट एवं परिष्कृत रूप से जीना ही वास्तव में कलात्मक जीवन है ।
__बहुत से लोग जिनमें धनिक, शिक्षित आदि भी हैं, उत्कृष्ट और परिष्कृत जीवन जीना नहीं जानते । अधिकांश लोग ऊँचे दर्जे के रहन-सहन, सौन्दर्य प्रसाधन, आमोद-प्रमोद, हास-विलास, इन्द्रिय-सुखभोग के साधन, स्वादिष्ट भोजन, व्यंजन आदि की प्रचुरता के साथ जीने को उत्कृष्ट कोटि का जीवन मानते हैं। बहुत से लोग जिंदगी को विविध उपकरणों से सजाये संवारे रहने को ही कला समझते हैं, परन्तु बाह्य प्रसाधनों द्वारा जीवन की साज-सज्जा या शृंगार किये रहना कला नहीं है । यह तो
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