SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : ३ मनुष्य की लिप्सा है, जिसे पूरा करने में उसे एक झूठे संतोष का आभास होता है। फलतः वह मान बैठता है कि वह ठीक ढंग से जी रहा है। कला तो वास्तव में वह मानसिक वृत्ति है, जिसके आधार पर साधनों की कमी में भी जिंदगी को खूबसूरती से जिया जा सकता है। __ खाने-पीने, चलने, उठने-बैठने, मल-मूत्रत्याग आदि के सभी साधन पशुओं और मनुष्यों को प्रायः एक-से मिले हैं । इसमें क्या विशेषता हुई कि मनुष्य ने खाने-पीने, पहनने, रहने आदि के ढेर सारे साधन इकट्ठे कर लिये हैं, उससे क्या लाभ ? ___ मनुष्य में विचारशीलता के कारण कला का उद्भव परन्तु आप जरा ठहरिए । मनुष्य में कुछ विशेषताएँ इन प्राणियों से भिन्न हैं। उसकी रहन-सहन की रुचि, उचित-अनुचित का भाव, भाषा-भाव आदि कितनी ही विशेषताएँ यह सोचने को विवश करती हैं कि मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, वह विधिवत् विचारशील होता है। साधारण तौर पर शरीर-यात्रा चलाने और मन को प्रसन्न करने की क्रिया पशु भी करते हैं, किन्तु पशुओं में व्यवस्थित विचारशीलता नहीं होती। ये कार्य वे अपनी अन्तःप्रेरणा से करते हैं । उनके जीवन में जो अस्तव्यस्तता दिखाई देती है, उससे प्रकट है कि पशुओं में उचित-अनुचित का विचार नहीं होता। मनुष्य में प्रत्येक कार्य को विचारपूर्वक करने की क्षमता होती है। विशृंखलित, ऊबड़-खाबड़ धरती को क्रमबद्ध व सुसज्जित रूप देने का श्रेय मनुष्य को है। घर, गांव, शहर, देश आदि की रचना, सुविधा और व्यवस्था की दृष्टि से अनुकूल बनाने का गौरव मनुष्य के विचारशील मस्तिष्क को है। अपनी इच्छाएँ, भावनाएँ दूसरों के प्रति प्रकट करने के लिए भाषा, लिपि, साहित्य आदि का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है । आध्यात्मिक अभिव्यक्ति एवं लौकिक आह्लाद प्राप्त करने के लिए विविध विधाओं और कलाओं के प्रशिक्षण, लेखन-प्रकाशन आदि की कितनी सुविधाएँ आज उपलब्ध हैं ! यह सब मनुष्य की विचारशक्ति का ही प्रतिफल है। ये सब विचारशक्ति के प्रतिफल मनुष्य के कला-ज्ञान के प्रतीक हैं। मनुष्य ने विचारपूर्वक जीवन जीने के लिए अनेक कलाओं का आविष्कार किया। विचारशक्ति का जीवनकला से सम्बन्ध विच्छेद परन्तु आज मनुष्य की विचारशक्ति जीवनकला से विच्छिन्न होती जा रही है। विज्ञान के सम्पर्क में आने पर मनुष्य का बौद्धिक वैभव तो बढ़ा, पर वह बुद्धि-वैभव दैवी सम्पदा के अनुरूप न होकर प्रायः आसुरी सम्पदा के अनुरूप ही अधिक है। प्राचीन काल में मनुष्य चाहे जितना धनाढ्य हो जाता तो भी भोजन, वस्त्र आदि की सादगी को नहीं छोड़ता था। पर आज थोड़ा-सा धन अधिक होते ही मनुष्य भोजन और वस्त्र आदि सामग्री में विवेक-विचार को भूलकर बढ़िया से बढ़िया कीमती और अधिक ऊँचे दर्जे का कपड़ा पहनने और अधिकाधिक चटपटी, गरिष्ठ, दुष्पाच्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy