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________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ६७ कांशतः खोता है । अतः जिस कार्य को करने में लाभ-हानि की गारन्टी न हो, केवल कथित भाग्य ही जिसका आधार हो, उसे जूए की संज्ञा दी जाती है । अमरीका के विख्यात लेखक रॉबर्ट डी० हरमेन (Robert D. Herman) ने अपनी पुस्तक Gambling में जूए की कई व्याख्यायें दी हैं। उनमें से एक-दो व्याख्याएँ यहाँ दे दूं तो ठीक रहेगा "Gambling is to be a form of deviation, a cultural aberration, reactive to a context of deprivation." -जूआ एक पथभ्रष्टता का रूप है, या सांस्कृतिक पथ से विचलित होना है, अथवा धन-अपहरण का एक प्रतिक्रियात्मक द्वन्द्व है। जूए से पथभ्रष्टता इसलिये होती है कि धन कमाने के जो नैतिक तरीके हैं या जो अभिनव औद्योगिक जीवन है, उस पथ से मनुष्य भटक जाता है। धन कमाने की धुन में वह अपनी संस्कृति और धर्म के मार्ग से विचलित हो जाता है तथा धन को बिना श्रम से खींचने वाले एक मनोरंजक एवं प्रतिक्रियाजनक अनैतिक व्यवसाय में प्रवृत्त हो जाता है । सभी धर्म एक स्वर से जूए को अनैतिकता और मुफ्तखोरी बढ़ाने वाला व्यवसाय कहते हैं । यह विपत्तियों की जड़ है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है-'अट्ठावयं न सिक्खेज्जा ।' जूआ खेलना मत सीखो! जैनधर्म में इसे खेलना तो दूर रहा, इसका प्रशिक्षण लेना भी मना है । ऋग्वेद में भी इसका स्पष्ट निषेध हैअक्षर्मा दीव्यः-पासों से मत खेलो। 'Gambling' में ईसाईधर्म का मत दिया है-"According to the church, Gambling is immoral only." ईसाई चर्च के अनुसार जूआ केवल अनैतिक है।' जूआ कितना घातक है, मानव-जीवन के लिए ? इसके लिए सत्येश्वर गीता का परामर्श देखिए जूआ बुरी बलाय है, मन, तन, धन की घात । मुफ्तखोर जीवन बने, चिन्तामय दिनरात ॥१५२२॥ आई तब शैतानियत, मिला मुफ्त का माल । आई तब हैवानियत, जबकि हुए कंगाल ॥१५२३॥ हुई मुफ्तखोरी बना, जूआ का संसार । जग की कुछ सेवा नहीं, धन की मारामार ॥१५२४॥ - भावार्थ स्पष्ट है । वास्तव में जूआ तन, मन और धन का नाश कर देता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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