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________________ ६६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ में हर कोई एक दूसरे से बाजी मार लेने का प्रयत्न करने लगा । परन्तु यह सब ईमानदारी की सीमित कमाई में कहाँ सम्भव थे ? 'सुख-शान्ति का मूल धर्म है' इस जीवनसूत्र को वह भूलता गया और 'धन ही एकमात्र सुख-सुविधाओं और सुखोपभोगों का साधन है,' इस विपरीत चिन्तन में प्रवृत्त हुआ । इसके फलस्वरूप उपर्युक्त सुख-सुविधाओं एवं भोग-विलासों की पूर्ति के लिए अल्प समय में, अधिकाधिक धन बिना किसी नैतिक श्रम के प्राप्त करने की चिन्ता सवार हुई । खेती, कारखाना, व्यापार, नौकरी, दूकानदारी आदि धन कमाने के विभिन्न नैतिक उपायों से श्रम करके अधिकाधिक धनोपार्जन करना हरएक के वश की बात नहीं । व्यापार आदि से लक्ष्मी बढ़ती है, पर सुसंयोग हो तभी । अगर भाग्य साथ न दे तो व्यापार में घाटा भी उठाना पड़ता है । फिर व्यापार आदि में पर्याप्त धन लगाना पड़ता है । इतना धन हरएक के पास होता नहीं । पैसा लगा दिया जाने पर भी कमाई अनिश्चित रहती है । कभी-कभी अपने व्यापार-धंधे में सहायक के रूप में रखे हुए मुनीम, गुमाश्तों, या कर्मचारियों पर बराबर ध्यान न दिया जाय तो वे किसी न किसी तरह से व्यापार-धंधा चौपट कर देते हैं या समय पर ठीक तरह से काम न करने के कारण दूकानदारी का भट्टा बिठा देते हैं । ऐसी परिस्थिति में सुखोपभोग या सुख-सुविधाओं की इच्छा हवा हो जाती है, दुश्चिन्ताएँ आकर घेरा डाल देती हैं । फलतः मनुष्य न तो सुख-शान्ति से सो सकता है, न खा-पी सकता है और न ही निश्चिन्तता से बैठ सकता है । ऐसी स्थिति में मनुष्य की दृष्टि चोरी, ठगी, झूठ - फरेब, बेईमानी, रिश्वतखोरी आदि अनैतिक धंधों पर पड़ी । परन्तु इन अनैतिक तरीकों को अपनाना कानूनीतौर पर अपराध गिना जाता है। कानूनी रूप से निषिद्ध होने से इन्हें सरेआम नहीं किया जा सकता था, क्योंकि इनके करने में हमेशा ही राजदण्ड और अपयश का भय बना रहता है । इन सब खतरे के मार्गों से छुटकारा पाने और अपनी सुखोपभोग - लालसा की पूर्ति करने हेतु मनुष्य की कल्पनाशक्ति ने दौड़ लगाई और जूए को बिना किसी खतरे के एवं बिना श्रम के धन कमाने का आसान तरीका समझा और इसे अपनाया । यही वर्तमान में जूए के आविष्कार की कहानी है । किसी भी प्रकार की चिन्ता या खतरे के कुछ भी धन लगाये बगैर, बिना मेहनत के तथा किसी की सहायता लिए बिना आसानी से धन कमाने हेतु मनुष्य की स्थूल बुद्धि ने जुए को उपयुक्त व्यवसाय समझा । जुआ क्या है, क्या नहीं ? इस दृष्टि से जूआ धन कमाने का वह आसान एवं अनैतिक तरीका है, जिससे मनुष्य मुफ्त में, बिना श्रम के शीघ्र ही मालामाल हो जाये । परन्तु जूए में सदा जीत हो हो, ऐसी बात नहीं; बहुत बार हार भी होती है, कभी जरा-सा कमाता है, अधि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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