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________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ६५ 'प्रेरणा दी है। गौतमकुलक का यह ७१वां जीवनसूत्र है। इस जीवनसूत्र का शब्दात्मक रूप इस प्रकार है जूए पसत्तस्स धणस्स नासो अर्थात्-द्यूतक्रीड़ा में आसक्त पुरुष के धन का नाश हो जाता है। द्यूत क्यों प्रारम्भ हुआ? यह पापकारी क्यों है ? चूत से कौन-कौन से धन का नाश होता है ? द्यूत से मानव-जीवनरूपी धन कैसे नष्ट हो जाता है ? छ त क्या है ? इसके प्राचीन और वर्तमान कौन-कौन से प्रकार हैं, जिनसे बचना आवश्यक है ? इन सब पहलुओं पर मैं गहन चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। द्यूतक्रीड़ा क्यों प्रारम्भ हुई ? प्राचीनकाल में यह आम मान्यता थी कि मनुष्य को अपनी उदरपूर्ति केवल अपने नैतिक पुरुषार्थ द्वारा उपार्जित धन से ही करनी चाहिए। मुफ्त के टुकड़े तोड़ना पापवृत्ति के अन्तर्गत समझा जाता था। प्रत्येक व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में यह बात भली-भाँति बैठ गई थी कि बिना श्रम से प्राप्त धन का उपयोग मनुष्य को चरित्र एवं व्यवहार; दोनों ही दृष्टियों से निम्नकोटि का बना देता है। किसी भी मनुष्य लिए प्रयुक्त 'हरामखोर' या 'हरामजादा' शब्द एक प्रकार की गाली के समान माना जाता था। माताएँ अपने बच्चों को कहीं भी मुफ्त में खाने का कठोर निषेध करती थीं। बिना परिश्रम से प्राप्त धन अनैतिक, निन्दनीय और समाज-व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने वाला समझा जाता था। यद्यपि सिर्फ साधु-संन्यासी, ऋषि-मुनि आदि त्यागीवर्ग को भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का अधिकार है, किन्तु वे भी समाज से जितना उपकृत भाव से लेते हैं, उसके बदले में प्रकारान्तर से समाज को नीति व धर्म के सन्मार्ग में प्रेरित एवं स्थिर करने का तथा तप-संयम में सतत पुरुषार्थ करके उसे अधिक देने का प्रयत्न करते हैं । प्राचीन काल में राजा-महाराजा अधिकारीवर्ग या धनिकवर्ग अपने पास संचित धन को समाज की अमानत समझते थे और उसे केवल समाज-सेवा या समाज-कल्याण के पुण्य कार्यों में लगाते थे। स्वयं राजा जनक, चक्ववेण आदि अपने व्यक्तिगत खर्च के लिए खेती करते थे । कई मुस्लिम शासकों ने भी इस परम्परा को अपनाया था। 'यथाराजा तथाप्रजा' वाली उक्ति के अनुसार आमजनता की मनोवृत्ति भी ऐसी होती थी। जब लोगों ने अपने नीतिमय पुरुषार्थ की कमाई पर रहना स्वीकार किया था, तब अपनी सीमित और सही आमदनी को वे केवल उचित और आवश्यक कार्यों में ही खर्च करते थे। उनका जीवन सादा, संयमनिष्ठ और एवं कमखर्चीला था। परन्तु धीरे-धीरे मनुष्य में सुख-सुविधाएँ बढ़ाने की, आमोद-प्रमोद की वृत्ति जागृत हुई एवं श्रम से उपार्जित करने की वृत्ति कम होती चली गई। फलतः उसके लिए मनुष्य को अनाप-शनाप धन खर्च करने की धुन सवार हुई। भोग-विलास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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