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८५. ध त में आसक्ति से धन का नाश धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज से मैं आपका ध्यान नैतिक जीवन के लिए परम आवश्यक व्यसनों से मुक्ति की ओर खींचूँगा । श्रावक बनने से पूर्व जैनाचार्यों ने सद्गृहस्थ के लिए सप्त कुव्यसन-त्याग बताया है । प्रत्येक धार्मिक व्यकि का जीवन सर्वप्रथम सात कुव्यसनों से मुक्त होना अनिवार्य है। जैसे देवालय में प्रवेश करने से पहले मनुष्य को स्नानादि से शुद्ध एवं मन से पवित्र होना तथा स्वच्छ वस्त्र-परिधान धारण करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार धर्म के पवित्र मन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व दुर्व्यसनों की गंदगी को दूर हटाकर जीवन को स्वच्छ, पवित्र, व्यसनमुक्त एवं सात्त्विक बनाना बहुत ही आवश्यक है।
__ व्यसनमुक्ति धार्मिक जीवन का प्रथम सोपान है । जो व्यफ़ि इन सप्त कुव्यसनों को छोड़ नहीं सकता, उसके जीवन में नीति, धर्म और अध्यात्म का निवास नहीं हो सकता। जिसके जीवन में नीति नहीं है, धर्म नहीं है, आध्यात्मिकता नहीं है, उसके जीवन में सुख-शान्ति की बहार नहीं आ सकती । सात कुव्यसनों का क्रम एक प्राचीन श्लोक में इस प्रकार बताया है
"द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पाद्धि चौयं परदारसेवा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके,
घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ॥" अर्थात्-(१) जूआ, (२) मांसाहार, (३) मद्यपान, (४) वेश्यागमन, (५) शिकार, (६) चोरी, और (७) परस्त्रीगमन, लोक में ये सात कुव्यसन हैं, जो मनुष्य को घोरातिघोर नरक में गिराते हैं।
वसुनन्दि पंचविंशतिका में जैनाचार्य वसुनन्दि ने इन सातों व्यसनों को पाप बताया है । पाप धर्म का शत्रु है। अतः पापरूपी शत्रु के विनाश तथा धर्मरूपी मित्र की सुरक्षा के लिए सप्त व्यसन-त्याग आवश्यक है। अन्यथा, पापरूपी राजा सप्त व्यसनरूपी सप्तांगसेना द्वारा धर्म का नाश करेगा । अतः इन्हीं सात व्यसनों पर क्रमशः ७ प्रवचन देने का विचार है। आज सर्वप्रथम व्यसन-धूत--जूआ पर प्रवचन दिया जा रहा है। महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में चूत के व्यसन से मुक्त होने की
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