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________________ ( १० ) सूक्ति और उक्ति को स्पष्ट करने के लिए सैकड़ों पृष्ठ सहज-रूप से लिखे जा सकते हैं । 'गौतम कुलक' के कुछ चिन्तन वाक्य तो बहुत ही मार्मिक और अनुभव से परिपूर्ण हैं । एक प्रकार से प्रत्येक पद स्वतन्त्र सूक्ति है, स्वतन्त्र जीवनसूत्र है और है विजयमन्त्र। परम आल्हाद है कि महामहिम आचार्य सम्राट राष्ट्रसन्त आनन्द ऋषिजी महाराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्न पर मननीय प्रवचन प्रदान कर जन-जन का ध्यान इस ग्रन्थ-रत्न की ओर केन्द्रित किया है। आचार्य प्रवर ने अपने जीवन की परख' नामक प्रथम प्रवचन में 'गौतम कुलक' ग्रन्थ के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार से विवेचन किया है, जो उनकी बहुश्रुतता का स्पष्ट प्रमाण है । परम श्रद्धेय आचार्य सम्राट को कौन नहीं जानता ? साक्षर और निरक्षर, बुद्धिमान और बुद्ध , बालक और वृद्ध, युवक और युवतियाँ सभी उनके नाम से परिचित हैं । वे उनके अत्युज्ज्वल व्यक्तित्व और कृतित्व की प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं हैं । वे श्रमणसंघ के ही नहीं, अपितु स्थानकवासी जैन समाज के वरिष्ठ आचार्य हैं, उनके कुशल नेतृत्व में एक हजार से भी अधिक श्रमण और श्रमणियां ज्ञान-दर्शनचारित्र की आराधना कर रहे हैं। लाखों श्रावक और श्राविकाएँ श्रावकाचार की साधना कर अपने जीवन को चमका रहे हैं । वे श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर हैं । उनका नाम ही आनन्द नहीं अपितु उनका सुमधुर व्यवहार भी आनन्द की साक्षात प्रतिमा है । उनका स्वयं का जीवन तो आनन्द स्वरूप है ही । आप जब कभी भी उनके पास जायेंगे तब उनके दार्शनिक चेहरे पर मधुर मुस्कान अठखेलियाँ करती हुई देखेंगे । वृद्धावस्था के कारण भले ही शरीर कुछ शिथिल हो गया हो किन्तु आत्मतेज पहले से भी अधिक दीप्तिमान है । उनके निकट सम्पर्क में जो भी आता है वह आधि, व्याधि, उपाधि को भूलकर समाधि की सहज अनुभूति करने लगता है। यही कारण है कि उनके परिसर में रात-दिन दर्शनार्थियों का सतत जमघट बना रहता है । दर्शक अपने आपको उनके श्रीचरणों में पाकर धन्य-प्रसन्न अनुभव करने लगता है। भारतीय साहित्य के किसी महान चिन्तक ने कहा है कि भगवान यदि कोई है तो आनन्द है । 'आनन्दो ब्रह्म इति व्यजानात्' (उपनिषद्) मैंने जान लिया है, आनन्द ही ब्रह्म है । आनन्द से ही परमात्म-तत्त्व के दर्शन होते हैं। जब आत्मा परभाव से हटकर आत्म-स्वरूप में रमण करता है तो उसे अपार आनन्द प्राप्त होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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