________________
११८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
विवेकः संयमो ज्ञानम्, सत्यम् शौचं दया क्षमा ।
मद्यात् प्रलीयते सर्व तृण्यां वह्निकणादिव ॥ मद्यपान से आग की चिनगारी से घास के ढेर की तरह विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया, क्षमा आदि गुण भस्म हो जाते हैं। इन सब गुणों के नष्ट होते ही यश कहाँ रहेगा ? यश तो तभी रहता है, जब मनुष्य गुणों से समृद्ध हो। जब यश को भस्म करने वाली मदिरा की आग जीवन में पड़ी हो, तब गुणराशि कैसे टिकेगी? मद्यपान करने वाला जान-बूझकर जब अपनी गुणराशि को मदिरा की आग में झौंक देता है, तब आध्यात्मिक पतन होना स्वाभाविक है और आध्यात्मिक दृष्टि से पतित व्यक्ति का यश कैसे टिक सकता है ?
मद्यपान से होने वाली फजीहत के विषय में तिलोक काव्य संग्रह में कहा हैकृमिराशि कुवास अपावन मद्य है, पीवत है नर नीच कुजाती। सूध रहे नहीं, बुद्धि रहे नहीं, मात के नार के नार के माती ॥ बासत मुख पै बैठत मक्षिका, लोक हंस करे बुद्धि की घाती। होत फजीती, यों जान के त्यागत, कहत त्रिलोक जो उत्तम जाती ॥४४॥
सचमुच शराबी अपवित्र कीड़ों का अर्क पीकर अपना यश गंवा बैठता है। पारिवारिक जीवन में मद्य से यशोनाश
मद्य से व्यक्ति का पारिवारिक जीवन छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह परिवार की मर्यादाएँ तोड़ देता है, परिवार में आए दिन नशे में धुत होकर धूम मचाता है, चिल्लाता है, पत्नी बच्चों को पीटता है, पत्नी के चरित्र पर अकारण सन्देह करता है, परिवार के धर्मसंस्कारों का लोप करता है, भला ऐसे व्यक्ति का यश कहाँ बखाना जाएगा? वह व्यक्ति तो कुलकलंक है । वह अपने कुल की समस्त मर्यादाओं को ताक में रखकर एकमात्र मद्य में आसक्त रहता है, तो कुल की कीर्ति को भी बट्टा लगाता है । कुलतिलक या कुलीन के बदले लोग उसे कुलांगार या कुलकलंक कहेंगे।
कंस की पत्नी जीवयशा ने यही तो किया था ! जिस समय देवकी का विवाह हो रहा था, उस समय अतिमुक्तक मुनि स्वाभाविक ही वहाँ भिक्षार्थ आए हुए थे। उन्हें देखकर मद्य के मद से उन्मत बनी हुई जीवयशा भान भूलकर अपनी कुलमर्यादा को ताक में रखकर मुनि अतिमुक्तक से कामवासनावश लिपट गई । कहने लगी"देवरजी ! तुम गीत गाओ, मैं नृत्य करूंगी।" मुनि ने जीवयशा का मद्यपानवश उन्मत्त प्रलाप देखा तो वे समझ गये कि यह मद्य की करतूत है, जिसने इसकी विवेक बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है । उन्होंने उसके आलिंगन पाश से छूटने का बहुत प्रयत्न किया, मगर वह तो उन्हें कस कर पकड़े हुए थी। मुनि ने जब उसके भावी अनिष्ट की बोर संकेत किया, तब कहीं उसका नशा उतरा ।
इस प्रकार मदिरादेवी की सेवा से जीवयशा ने अपने कुल के यश को धो डाला, कुल को कलंकित किया।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org