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________________ १-१८ अनुक्रमणिका ८१. सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि कला और जीवन का सम्बन्ध १, कलात्मक जीवन : यह या वह ? २, मनुष्य में विचारशीलता के कारण कला का उद्भव ३, विचार-शक्ति का जीवन-कला से सम्बन्ध-विच्छेद ३, फैशन के कारण विकृति ४, कलाहीन अस्वस्थ जीवन ५, उदासी : कलात्मक जीवन की पतझड़ ६, कलामय जीवन : जीवन को नैतिक सद्गुणों से सजाना ६, कार्य में जान डाल देना ही कला है ७, ये दुर्गुण कला में आग लगाने वाले हैं ८, एक कार्य : तीन दृष्टियाँ ८, पहली दृष्टि : कला का उपयोग चोरी आदि की दृष्टि से ६, सहस्रमल्ल का दृष्टान्त १०, दूसरी दृष्टि : प्रसिद्धि आदि की लिप्सा १३, तीसरी दृष्टि : धर्मकला से ओत-प्रोत १४, धर्मकला को कौन उपलब्ध करता है ? १६, धर्मकलायुक्त जीवन जीने वाला १७ । ८२. धर्मकथा : सर कथाओं में उत्कृष्ट ___ अन्य कथाएं और धर्मकथा १६, स्त्रीकथा १६, भक्तकथा २०, राजकथा २१, देशकथा २१, आधुनिक विकथाएं २२, धर्मकथा क्या है, क्या नहीं ? २४, धर्मकथाश्रवण-मनन-निदिध्यासन से लाभ २६, लोहखुर चोर का दृष्टान्त २७, धर्म-कथा-श्रवण को प्राथमिकता २८, धर्मकथा से सभी समस्याओं का हल २६, ये (दस प्रकार के व्यक्ति) धर्मकथा से लाभ नहीं उठा सकते ३०, धर्मकथा सुनने के अधिकारी पुरुष के लक्षण ३१, धर्मकथा का जीवन पर प्रभाव और चमत्कार ३१, अनंग-सुन्दरी का दृष्टान्त ३२ । ८३. धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ बल : सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक ३३, निर्बलता पाप और अपराध है ३५, दूसरे बल और धर्मबल ३६, १६-३२ ३३-४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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