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________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १६१ पुस्तक, वस्त्र, पात्र आदि की आवश्यकता पड़ गई, सार्मिक साधु स्थण्डिल भूमि को शौचार्थ गया हुआ है, या सोया हुआ है, अथवा किसी कार्यवश उपाश्रय से बाहर गया है, अब बताइए आवश्यकता पड़ने पर साधु उसके निश्राय का कोई पात्र या पुस्तक उठाएगा तो सार्मि-अदत्त नामक चोरी का दोष नहीं लगेगा ? - इसका समाधान यह है कि यों चोरी का दोष श्रावक या साधु को नहीं लगता; चोरी का दोष तब लगता है, जब श्रावक के परिवार का या साधु का कोई साधर्मिक साधु उसे मना कर दे, अपनी सहमति किसी चीज के लिए प्रकट न करे, फिर भी उससे छिपाकर या उसके परोक्ष में कोई चीज उठाकर उसका उपयोग कर लिया जाए । घर की प्रत्येक वस्तु का उपयोग करने की घर के हर सदस्य को गृहस्वामी या गृहस्वामिनी की ओर से पहले से अनुमति या सहमति होती है, तब बार-बार हर वस्तु के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं रहती। इसी प्रकार प्रत्येक साधु की ओर से अपने साथ रहने वाले सार्मिक साधु को उसके निश्राय की कोई भी वस्तु लेने, उपयोग करने या उठाने की अनुमति या सहमति रहती है, उसका किसी प्रकार का विरोध या असहमति उस बारे में नहीं होती, ऐसी स्थिति में अदत्तादानचोरी का दोष नहीं लगता । चोरी का दोष तो तब लगता है, जब कोई गृहस्वामी अपने परिवार के किसी सदस्य को किसी चीज के लेने से इन्कार करे, तब भी वह ले ले । अथवा साधु अपने सार्मिक को किसी वस्तु के लेने या उपयोग करने का निषेध कर दे । वास्तव में देखा जाए तो जहाँ चोरी होती है या की जाती है, वहाँ प्रच्छन्नता, गुप्तता होती है, वस्तु के मालिक से छिपाकर, नजर बचाकर, उसकी अनुपस्थिति में या परोक्ष में चोरी होती है। __ चोरी क्यों पाप है ? क्यों कुव्यसन है ? कई लोग यह कह बैठते हैं कि चोरी में कौन-सा पाप या व्यसन है ? चोरी में यही तो होता है, कि एक जगह से चीज उठाकर दूसरी जगह रख दी गई, एक की तिजोरी से माल लेकर दूसरी तिजोरी में रख दिया गया, एक पेटी से दूसरी पेटी में, एक की जेब से दूसरे की जेब में धन चला गया, इसमें किसी भी जीव की हिंसा नहीं हुई, एक चींटी भी नहीं मरी, न किसी प्रकार का झूठ बोलने का काम पड़ा, न बेईमानी करने का, न ब्रह्मचर्य भंग करने का और न परिग्रह-वृद्धि का काम हुआ। बल्कि एक के यहाँ का परिग्रह कम कर दिया। क्या आप इस बात को मानेंगे कि चोरी में कोई पाप नहीं है ? यदि कोई व्यक्ति चोर के यहाँ की वस्तु चुरा ले और फिर उससे पूछे कि तुम क्यों तिलमिला रहे हो ? हो क्या गया, तुम्हारे यहाँ वह वस्तु न रही सही, किसी दूसरे के यहाँ चली गई तो कौन-सा गजब हो गया ? तुम भी तो यही करते हो ? क्या चोर इस बात को तब भी मानेगा? क्या वह अपनी चोरी को शान्ति से सह लेगा? कदापि नहीं। वह अपने यहां हुई चोरी को तो पाप कहेगा, बुरी कहेगा, अच्छी नहीं समझेगा, तब दूसरे के यहाँ की जाने वाली चोरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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