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६0. चोरी में आसक्ति से शरीर नाश
धर्मप्रेमी बन्धुओ ! - आज मैं नैतिक जीवन के लिए घातक छठे कुव्यसन के सम्बन्ध में प्रकाश डालूगा । छठा कुव्यसन है-चोरी । नैतिक जीवन-निर्माण के लिए चोरी का त्याग अनिवार्य है। महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में चोरी के त्याग का संकेत किया है। इस जीवन सूत्र का रूप इस प्रकार है
चोरी पसत्तस्स सरीरनासो -चोरी में आसक्त पुरुष के शरीर का नाश होता है।
गौतम कुलक का यह ७६वाँ जीवनसूत्र है। - चोरी क्या है ? वह नैतिक जीवन के लिए क्यों घातक है ? उसके क्या-क्या रूप हैं ? चोरी से क्या-क्या हानियाँ हैं ? आदि सभी पहलुओं पर आज में चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। चोरी क्या है ? क्या नहीं है ?
सर्वप्रथम प्रश्न होता है कि चोरी किसे कहते हैं ? चोरी की परिभाषा क्या है ? स्थूल रूप से चोरी है-दूसरे के स्वामित्व की वस्तु को हड़प लेना, हरण कर लेना, बिना दिये या बिना अनुमति के ले लेना, उठा लेना और अपने अधिकार में कर लेना, किसी भी व्यक्ति का धनमाल या कोई भी वस्तु जबरन छीन लेना, लूट लेना, या धोखा देकर दूसरे के माल को हथिया लेना, सेंध लगाकर या घर फोड़कर अन्दर घुसकर किसी के धन-माल को बटोर कर ले जाना ।
इसे शास्त्रों में अदत्तादान कहा है। अदत्तादान का अर्थ है-बिना दिये लेना । परन्तु घर में, दूकान में, उपाश्रय में या सर्वत्र प्रत्येक चीज इस प्रकार दूसरे के द्वारा बिना दिये लेना चोरी में परिगणित होता हो तब तो साधु या श्रावक के लिए किसी चीज का उपयोग करना भी कठिन हो जायेगा, क्योंकि पद-पद पर गृहस्थ को घर में कई चीजें लेनी-रखनी होती हैं, कहाँ वह बात-बात में अनुमति लेता रहेगा ? यदि घर का मालिक कहीं किसी कार्यवश बाहर चला गया तो वह किससे अनुमति लेगा? और अनुमति नहीं लेगा और एक भी चीज बिना अनुमति के उठाएगा तो चोरी का दोष लगेगा न ? इसी तरह साधु भी अपने सार्मिक साधु के साथ रहता है, कदाचित् उसको साधु के निश्राय के किसी उपकरण, या किसी
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