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धर्म : जीवन का त्राता : २६६
सहन करता है । दूसरों पर भी कोई दुःख, संकट या आफत आने पर मनुष्य का वैयक्तिक धर्म कहता है-उस समय उन्हें सहायता दो, उनकी रक्षा करो, उन्हें सहयोग दो ; परन्तु अपना आचरण एवं व्यवहार दूसरों को नुकसान, कष्ट या हानि पहुँचाने वाला न हो । उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति धर्म से अनुप्राणित होगी । वह कोई भी ऐसी प्रवृत्ति न करेगा, जो उसकी धर्ममर्यादा से विपरीत हो । धर्मनिष्ठ व्यक्ति के जीवन में एक विलक्षण आह्लाद एवं आत्मबल रहता है कि वह असंख्य विघ्न-बाधाओं और प्रतिगामी शक्तियों से अपनी रक्षा करते हुए उन्हें परास्त कर देता है । वस्तुतः धर्म मनुष्य का वह अग्नितेज है, जो प्रकाश भी उत्पन्न करता है और क्रियाशीलता भी जागृत रखता है । इसीलिए सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है - 'दीवेव धम्मं ' - धर्म दीपक के समान अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला है । धर्म की प्राणवत्ता निर्जीव को सजीव एवं स्फूर्तिमान् बनाने में समर्थ होती है । 'जीवट' सच्चे धार्मिक का प्रधान लक्षण होता है । धर्मशील व्यक्ति के अन्तःकरण में वह शक्ति होती है, जिससे वह विभिन्न विपदाओं एवं विघ्न-बाधाओं में भी हिमालय के समान अटल एवं समुद्र के सदृश धीर-गम्भीर रहता है । मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का वन में लक्ष्मण और सीता के सिवाय कौन सहायक था ? विपदाएँ आई, विरोध और अवरोध उत्पन्न हुए, मगर वे अपनी धर्म मर्यादा पर अटल रहे । इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में धर्म को द्वीप की उपमा दी है
" जरामरणवेगेण बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो....
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"वृद्धावस्था और मृत्यु के वेग से बहते हुए जीवों के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है ।"
दूसरी बात यह है कि जब व्यक्ति धर्माचरण करता है तो कम से कम उसके अशुभ कर्मों का तो क्षय हो ही जाता है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को सहसा रोग, शोक, दुःख दारिद्रय, संकट आदि का सामना नहीं करना पड़ता । धर्म-पालन के कारण इस जन्म में तो उसे सुख-शान्ति प्राप्त होती ही है, अगले जन्म में भी अशुभकर्मों का अधिकांश रूप में क्षय हो जाने से सुगति मिलती है, उत्तम कुल में जन्म, नीरोग शरीर, उत्तम धर्म का वातावरण आदि प्राप्त होता है और फिर वह धर्माचरण के बल पर कर्मों का क्षय करके शाश्वत सुख (मोक्षसुख) को प्राप्त कर लेता है । ऐसी स्थिति में उसकी आत्मरक्षा काम-क्रोधादि विकारों से स्वतः हो जाती है, दुःखों और विपदाओं से तो उसकी रक्षा हो ही जाती है। इसके अतिरिक्त क्षमा, दया आदि धर्मों का पालन करने से इस लोक में उसका अभ्युदय और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है, जिससे वह अपने जीवन को सार्थक कर सकता है । धर्म ही इस लोक और परलोक का निर्माता है । वही एक सुगम और स्वाभाविक मार्ग है, जन्म-मरण के चक्र से निकालकर जीवन - नैया को संसार-सागर से पार करने में सहायक होता है ।
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