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________________ ३०० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ ये हैं धर्म द्वारा धर्मपालक मनुष्य की रक्षा के विविध रूप ! धर्म का दूसरा रूप है सामाजिक जीवन का त्राण । यद्यपि मनुष्य का विकास एवं अभ्युदय व्यष्टिपरक तत्त्व है, परन्तु वही सामूहिक होने पर समष्टिपरक हो जाता है । यदि मनुष्य धर्म द्वारा निर्धारित अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, न्याय-नीति आदि गुणों को अपने जीवन में अंगीकार कर ले तो वह व्यष्टिपरक गुण समष्टिपरकसामाजिक हो जाता है। जब सब मनुष्य धर्माचरण करने लगेंगे तो फिर कहीं कोई धर्मविरुद्ध आचरण नहीं होगा फिर यह धर्म समष्टिपरक या सामाजिक रूप ले लेगा। इसीलिए कुछ ऋषियों की यह धारणा रही कि यदि एक व्यक्ति सुधर जाए तो समाज भी बदल जाए। क्योंकि व्यक्तियों से समाज बनता है, व्यष्टि से ही समष्टि बनती है । इसलिए यदि हर व्यक्ति धर्मनिष्ठ बन जाए तो पूरा परिवार-समाज व युग भी धर्मनिष्ठ बन सकता है। यही धर्म का लक्ष्य भी है कि व्यष्टि रूप में मनुष्य देवतुल्य बने, समष्टि रूप में धरती ही स्वर्ग बने । अपने दूसरे रूप में धर्म सामाजिक स्थिति की दुःख और विपत्ति से रक्षा करने और उसे सुख शान्तिमय बनाने का आधार बनता है । जैसा कि नारायणोपनिषद् में स्पष्ट कहा है धर्मो विश्वरूपजगतः प्रतिष्ठा, लोके मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति । धर्मेण पापमपनुदन्ति धर्म सर्व प्रतिष्ठितम्, तस्माद् धर्म परमं वदन्ति । "धर्म ही सारे जगत् का प्रतिष्ठान-आधार है। धर्मिष्ठ के पास ही प्रजाजन आते हैं, धर्म से ही पाप दूर होता है। धर्म में सब कुछ प्रतिष्ठित-समाया हुआ है। इसी कारण धर्म को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।" व्यष्टिरूप में यदि धर्म को मानव मात्र ने अंगीकृत कर लिया या व्यक्ति ने अपना वैयक्तिक जीवन धर्मानुरूप बना लिया तो समष्टिरूप में यही धर्माचरण ऐसी सामाजिक स्थिति का निर्माण करता है जिससे मनुष्य का पारिवारिक एवं सामाजिक ढांचा व्यवस्थित रहता है । पूरा समाज ही ऐसा बन जाता है कि वहाँ 'एक के लिए सब और सबके लिए एक' का भाव व्याप्त रहता है। धर्म का यही रूप आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में समता, समानता एवं समाजवाद के नाम से प्रचलित है। इस प्रकार किसी समय-विशेष या समाज-विशेष में धर्म की धारणाएँ, मान्यताएँ या मर्यादाएं या नैतिक मूल्य निर्धारित हो जाने पर यदि उस समाज के सभी घटक धर्म का पालन करने लगेंगे तो फिर धर्म पूरे समाज की रक्षा करेगा ही; क्योंकि समाज के किसी अंग पर विपत्ति आ पड़ने पर दूसरे घटक उसकी विपत्ति में सहायता करना या विपत्ति-निवारण करना अपना धर्म समझते हैं। धर्म 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का सिद्धान्त मनुष्य को सिखाता है। यह धर्मसिद्धान्त जब व्यक्ति की समझ में आ जाता है तो वह दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझता है, दूसरे को सुख पहुँचाना प्रकारान्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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