SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ साहित्य को धर्मकथा इसलिए कहा जाता है कि ऐसा साहित्य अंगोपांगों सहित धर्म की प्रेरणा से ओतप्रोत होता है । धर्मकथा-श्रवण-मनन-निदिध्यासन से लाभ प्रश्न होता है-धर्मकथा कहने, सुनने, या मनन करने से क्या लाभ है ? यदि धर्मकथा का श्रवणादि न किया जाये तो क्या हानि है ? आज भारतवर्ष में धर्मकथा-श्रवण के प्रति लोगों की आस्था मन्द होती जा रही है। अगर उन्हें यह पता लग जाये कि अमुक स्थान पर जाने से पांच सौ रुपये का लाभ होने वाला है और इसी नगर में अमुक स्थान पर साधु मुनिराज विराजमान हैं, उनका धर्मोपदेश होने वाला है तो सामान्य मानव का झुकाव अर्थलाभ की ओर होगा, धर्मलाभ की ओर नहीं । कई व्यक्ति, जिन्हें धन और सत्ता के मद ने आ घेरा है, वे भी अपने अहंकारवश धर्मश्रवण से कतराते हैं। उनका तर्क है कि धर्मकथा सुनने या उस पर मनन करने से कोई अर्थलाभ तो होता नहीं, धर्मलाभ किसने देखा है ? इसका समाधान यह है कि मनुष्य-जीवन का उद्देश्य केवल अर्थलाभ ही नहीं है, खाना-पीना, ऐशो-आराम करना भी जीवन का लक्ष्य नहीं है। जीवन का मुख्य लक्ष्य है-जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाना । उसके लिए अर्थलाभ या कामलाभ आवश्यक नहीं हैं, धर्मलाभ ही सर्वप्रथम आवश्यक और अनिवार्य है । धर्मलाभ धर्मकथा सुनने या मनन करने से ही हो सकता है। धर्मकथा धर्मलाभ का मूल स्रोत है। मानव-जीवन के अभ्युदय और निःश्रेयस के लिए अर्थलाभ या कामलाभ उपयोगी नहीं है, धर्मलाभ ही उपयोगी है। अर्थ और काम के लाभ से प्रेय की प्राप्ति हो सकती है, श्रेय की नहीं। प्रेय देखने में लुभावना और आकर्षक लगता है, वह क्षणभंगुर है, नष्ट होने वाला है जबकि श्रेयमार्ग सहज स्वाभाविक है, वह अविनाशी है । धर्मकथा सुनने से मनुष्य को वह मार्ग मिल जाता है, जिससे अर्थ और काम की अपेक्षा ही न रहे, इनकी गुलामी ही न करनी पड़े। आपसे मैं पूछता हूँ-एक व्यक्ति आपको अर्थलाभ या कामलाभ का रास्ता बताता है और दूसरा व्यक्ति ऐसा रास्ता बताता है, जिससे शाश्वत सुख-शान्ति की प्राप्ति हो, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकें तथा अर्थ और काम से निरपेक्ष एवं निस्पृह रह सकें, उनकी गुलामी न करनी पड़े तो आप कौन-सा रास्ता पसन्द करेंगे । स्पष्ट है कि आप दूसरा मार्ग ही पसन्द करेंगे, पहले मार्ग को नहीं। लौकिक व्यवहार का एक सिद्धान्त है कि ___ 'प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' कपड़े को कीचड़ में डालकर फिर पानी से धोने की अपेक्षा दूर से ही कीचड़ से उसको स्पर्श न कराना ही अच्छा है। इसी प्रकार पहले आत्मा को अर्थ और काम प्राप्ति के चक्कर में डालकर प्रेयमार्ग प्राप्त कराना और फिर उसके फलस्वरूप होने वाले जन्म-मरण के चक्कर से बचाने हेतु धर्मलाभ प्राप्त कराकर श्रेयमार्ग पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy