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________________ धर्मकथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : २५ • से पावन बने हों, पापमूर्ति से धर्ममूर्ति बने हों, वे कथाएँ भी धर्मकथा कही जा सकती हैं । इसके अतिरिक्त ऐसी कथाओं को भी धर्मकथा कहा जा सकता है, जिन कथाओं का प्रारम्भ भोगों के अतिरेक से होकर उनका अन्त भोगों की आसक्ति के सर्वथा त्याग के रूप में प्रतिफलित हुआ हो अथवा जो कथा प्रारम्भ में दुर्व्यसनों में निमग्न पुरुष की हो, लेकिन उसका अन्त दुर्व्यसनों के सर्वथा त्याग में हो । धर्मकथा धर्मोपदेश को भी कहते हैं । इस दृष्टि से केवल धर्मप्रेरणायुक्त कथा-कहानी को ही धर्मकथा नहीं, अपितु धर्मप्रवचन, धर्मदेशना या धर्मप्रेरणा को भी धर्मकथा कहते हैं । भारतीय संस्कृति में संतों, साधु-संन्यासियों एवं ऋषि-मुनियों के प्रवचनों, व्याख्यानों या धर्मोपदेशों को भी धर्मकथा कहने का आम रिवाज है । क्योंकि साधु-सन्तों के धर्मोपदेश में जो भी तात्त्विक वर्णन किया जाता है, कथा-कहानी या दृष्टान्त कहे जाते हैं, अथवा अन्य शास्त्रीय वर्णन किया जाता है, वह सब धर्म से सना, धर्म से ओत-प्रोत होता है एवं उनमें धर्ममार्ग पर चढ़ाने, श्रोताओं को धर्म के रंग में रंगने का प्रयास होता है । पाश्चात्य विचारक John Newton ( जोहन न्यूटन ) ने भी कहा है "My grand point in preaching is to break the hard heart and to heal the broken one. " "धर्मापदेश में मेरा सबसे बड़ा मुद्दा है – कठोर हृदय को पिघलाना और टूटे हुए हृदय को साधकर स्वस्थ करना । " इसके अतिरिक्त जिस उपदेश या साहित्य में संसार एवं सांसारिक पदार्थों, शरीर, यौवन, धन-वैभव आदि की निःसारता, तुच्छता और अनित्यता बताई जाती है । जीवन में जिससे विरक्ति पैदा हो जाती है, इन नाशवान और अनित्य पदार्थों से । मनुष्य संसार से विरक्त होकर त्यागमार्ग, चारित्रपथ को अंगीकार करने को तत्पर हो जाता है । साधुधर्म - उत्कृष्ट महाव्रतरूप धर्म को अंगीकार करने के लिए उद्यत हो जाता है । आत्मा में – विशुद्ध आत्मतत्त्व में आत्मभावों में रमण करने के लिए सुसज्ज हो जाता है, सांसारिक पुद्गलों की आसक्ति का त्याग कर देता है, वह वर्णन, विवेचन, उपदेश या साहित्य भी धर्मकथा के अन्तर्गत है । इसीलिए महात्मा गांधी ने उस शास्त्र को भी धर्मकथा कहा है "जो मोक्ष की ओर बढ़ाने वाला हो, संयम की शिक्षा देने वाला हो ।" और उस साहित्य को भी हम धर्मकथा कह सकते हैं, जिसमें दान, शील, तप, भावना, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म, या ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म अथवा क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, इन दस धर्मों का अथवा गृहस्थ-धर्म के अणुव्रतों व साधुधर्म के महाव्रतों का विवेचन हो, इन्हीं पर कथाएँ, दृष्टान्त, सूक्ति-संग्रह, गाथासंचय अथवा प्रवचन या लेख हों। ऐसे धर्मकथात्मक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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