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________________ धर्मकथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : २७ चढ़ाना अच्छा नहीं । अच्छा तो यही है कि पहले से ही धर्मलाभ द्वारा प्राप्त होने वाले श्रेयमार्ग को अपनाया जाए, जिससे अर्थ और काम की गुलामी या अपेक्षा न करनी पड़े, जन्म-मरण के चक्र में न पड़ना पड़े। एक बार मनुष्य धर्मलाभ को छोड़ देता है, और निरपेक्ष निरंकुश अर्थ- काम का सेवन करता है, तो फिर उसे सहसा धर्म की प्राप्ति होना कठिन हो जाता है, क्योंकि एक बार अधर्म और पाप के फलस्वरूप नरक और तिर्यञ्चगति प्राप्त होने पर वहाँ धर्म की प्राप्ति होना कठिन होता है । जहाँ व्यक्ति अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व और दुःख में ही रात-दिन ग्रस्त रहता है, वहाँ धर्म की जिज्ञासा होनी ही कठिन है, धर्म की प्राप्ति तो और भी दुष्कर है । अतः धर्मलाभ ही जीवन में महत्त्वपूर्ण है और वह धर्मकथा के योग से सहज ही हो जाता है । धर्मकथा सुनने से भले ही सीधा अर्थ - कामलाभ न होती हो, लेकिन अर्थ - काम की गुलामी ही न करनी पड़े, इनकी आसक्ति से जन्म-मरण के चक्र में न पड़ना पड़े, इस प्रकार के श्रेयमार्ग का महालाभ - धर्मलाभ धर्मकथा से होता ही है, जिससे आगे चलकर जन्म-मरण का बन्धन कट जाता है । लोहखुर राजगृह नगर का नामी चोर था । उसने मरते समय अपने पुत्र रोहिणेय से कहा था - "बेटा ! एक संकल्प कर ले। किसी भी साधु के वचन नहीं सुनना ।" रोहिणेय ने संकल्प कर लिया । लोहखुर के मरने के बाद राजगृह में रोहिणेय का आतंक बहुत बढ़ गया था । रोहिणेय रूप-परिवर्तन करने में बहुत निपुण था । राजपुरुष, राजा श्रेणिक आदि ने भरसक प्रयत्न कर लिया रोहिणेय को पकड़ने का, लेकिन वह किसी भी तरह पकड़ में नहीं आता था । एक दिन रोहिणेय चोर कानों में उँगलियाँ डाले हुए भगवान् महावीर के समवसरण (धर्मसभा) के आगे से होकर जा रहा था, तभी अकस्मात् उसके पैर में काँटा चुभ गया । संत के वचन न सुनने का संकल्प था; परन्तु काँटा निकालने के लिए कानों में डाली हुई उंगलियाँ निकालनी पड़ीं। इसी दौरान उसने भगवान् महावीर की धर्मकथा के ४ वचन सुने " (१) देवों के पैर जमीन से अधर रहते हैं, (२) उनके गले में पड़ी हुई फूलमालाएँ कुम्हलाती नहीं, (३) उनकी आँखों की पलकें नहीं झपतीं और (४) उनके शरीर में पसीना नहीं आता ।" ये चार वचन सुन कर रोहिणेय वहाँ से सीधा अपनी गुफा में पहुँचा । इधर मंत्री अभयकुमार ने रोहिणेय चोर को पकड़ने का बीड़ा उठाया हुआ था। वे उसकी टोह में घूम रहे थे । एक जगह उन्हें रोहिणेय के होने का शक पड़ा किन्तु पूछने पर उसने अपने को व्यापारी बताया अपना नाम, पता-ठिकाना दूसरा ही बताया। लेकिन अभयकुमार ने उससे मित्रता कर ली । उसे भोजन का न्यौता दिया । भोजन में कुछ मादक द्रव्य खिला दिये, जिससे वह बेहोश हो गया । उसे बेहोशी की हालत में वहाँ ले आया गया, जहाँ अभयकुमार ने पहले से ही स्वर्ग-सी रचना कर रखी थी । वहाँ देव एवं देवांगनाओं का वेष धारण किये हुए कई युवक www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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