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________________ ( १६ ) समर्थ के लिए क्षमा कितनी दुष्कर, कितनी सुकर ? २१८, क्षमा का महत्त्व २१६, चाहिए स्वयं अपने आप पर नियन्त्रण २२०, चित्तौड़ के एक शान्तिप्रिय कवि का दृष्टान्त २२१, दरियापुरी सम्प्रदाय के पूज्य श्री भ्रातृचन्द्रजी महाराज के जीवन की एक घटना २२६, विविध प्रभुत्वसंपन्न समर्थ लोगों की दुष्कर क्षमाएँ २२७, समर्थ मालिक की नौकर के प्रति क्षमा २२७, प्रभुत्वसम्पन्न राजा की क्षमा २२७, समर्थ पति की पत्नी के प्रति क्षमा २२८ । ४. सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर सुखोपभोगी : कौन और कैसे ? २३०, सांसारिक सुखों के मुख्य स्रोत २३०, सुखोपभोगी कितना सुखसम्पन्न कितना नहीं ? २३१, स्वयं ही दुःख में पड़ता है २३२, वास्तविक सुखोपभोगी सम्पदाओं से नहीं, विभूतियों से २३३, सुख के मंदिर के चाबी सद्धर्माचरण २३४, सुखोपभोग में बाधक वस्तुएँ २३६, (१) अवांछनीय अभिवृद्धि २३६, (२) अनुपयुक्त . आकांक्षाएँ २३७, (३) निरंकुश भोगवाद २३६, पुरिमतालनगर के क्षत्रियपुत्र का दृष्टान्त २४०, इच्छाओं का निरोध कितना सुकर, कितना दुष्कर ? २४२, मनुष्य की मनश्चेतना के विभिन्न स्तर २४३, जागृति हो तो इच्छा निरोध सुकर २४६, भील कन्या और राजा का दृष्टान्त २४७ । ६५. यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर , युवक, युवावस्था और कर्तृत्व शक्ति २५० तरुण को सक्रियता के दुरुपयोग से कैसे रोका जाय ? २५१, लाला लाजपतराय की जैनधर्म से अरुचि का कारण - दृष्टान्त २५३, अनुभव और इन्द्रिय-शक्ति का समन्वय अपेक्षित २५४, असन्तोष : कारण और निवारण २५५, उच्छृंखलता : कितनी यथार्थ, कितनी अयथार्थ २५६, चार दैत्य : इन्द्रिय-शक्ति के उच्छृंखल होने में कारण २५७, तारुण्य : इन्द्रियों की अजोड़ शक्ति का केन्द्र २५७, तारुण्य में इन्द्रियनिग्रह : सुकर Jain Education International For Personal & Private Use Only २३०-२४६ २५०-२६७ www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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