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________________ २०८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कि उसका थोड़ा-सा दान भी धनिकों के लिए महाप्रेरणादायक बन सकता है। गरीब के पास जो थोड़ी-सी पूजी है. या दान देने के लिये धन के सिवाय जो भी अन्य साधन हैं, उसमें से वह थोड़ा-सा भी देता है तो समाज में उसके प्रति सद्भावना जागती है और स्वयं की शुद्धि या स्वामित्व-विसर्जन की भावना के साथ समाज को भी शुद्धि एवं स्वामित्व-विसर्जन की प्रेरणा मिलती है। गरीब के पास भी श्रम, बुद्धि, स्वल्प साधन, थोड़ा-सा अन्न आदि की कमी तो शायद नहीं रहती, इसलिये उन्हें अपने को हीन, अभागा या दान देने के लिये अक्षम-असमर्थ नहीं मानना चाहिये । बल्कि उन्हें दान देने की पहल करनी चाहिए। असल में देखा यह जाता है कि धनिक लोगों के पास प्रचुर धन, साधन आदि होते हैं, इसलिए उनकी उन पर ममता-मूर्छा भी उतनी ही अधिक होती है, अपने हृदय को समझाकर दान देने का निर्णय करने में भी उतनी ही देर लगती है, जबकि निर्धन को अपनी थोड़ी-सी पूजी या साधनों पर ममता-मूर्छा तो होती है, मगर उसमें अपनी दान को शक्ति का गौरव जगाने पर तथा दान-लाभ समझाने पर वह झटपट निर्णय पर आ जाता है, शीघ्र ही दान देने के लिए तैयार हो जाता है। यही बात हई । सेठ ने उसे समझाया-"चारुमति ! तु भी दान दिया कर। तेरे पास जो भी है, उसमें से तू मुनिवरों को दान दे सकता है।" परन्तु वह कहने लगा-“सेठजी ! मेरे पास तो रोजाना खाने-पीने जितना ही होता है, बचता कुछ भी नहीं; फिर मैं मुनिवरों को कैसे दान दे सकता हूँ।" एक बार अभयंकर सेठ चारुमति को अपने साथ गुरु-दर्शन के लिए उपाश्रय में ले गया। वहाँ मुनिवर ने उससे कहा - "भाई ! दान, शील, तप और भाव-ये चार धर्म के अंग हैं । इनमें से तेरे पास सभी शक्तियाँ हैं । तू भी यथाशक्ति धर्माचरण कर सकता है।" वह सविनय कहने लगा—'गुरुदेव ! मेरे पास तो बहुत ही थोड़ा सा द्रव्य, सिर्फ ५ कौड़ी बचती हैं, उनसे मैं कैसे दान कर सकता हूँ।" गुरुदेव ने कहा - "भाग्यशाली ! धर्म में तो भावों की प्रमुखता है, तू प्रबल भावों से अगर थोड़ासा भी, तुच्छ वस्तु का भी, दान करता है, तो उसका मूल्य बहुत अधिक है ।" गुरुदेव यह कह रहे थे, कि एक व्यक्ति गुरुदेव से कुछ प्रत्याख्यान (त्याग) करने के लिए आया। गुरुदेव ने उसे प्रत्याख्यान कराया । तब चारुमति ने पूछा"भगवन् ! इस प्रकार के प्रत्याख्यान से भी कुछ धर्म होता है ?" गुरु बोले-"हाँ, भाई ! प्रत्याख्यान करने से भी बहुत धर्म होता है।" यह सुनकर चारुमति ने कहा-"भगवन् ! आज मुझे उपवास का प्रत्याख्यान (नियम) करा दीजिए।" इस प्रकार गुरुदेव से उपवास का प्रत्याख्यान करके घर गया । सोचा-'आज साधु-मुनिराज पधारें तो मैं अपने उपार्जित भोजन में से उन्हें देकर प्रतिलाभित होऊँ।" सेठ के यहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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