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१७४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
मैंने समाचार पत्र में पढ़ा था कि एक कस्बे में एक बी.ए. पास नाई का लड़का अन्य सब बौद्धिक कार्य छोड़कर अपने पैतृक धंधे में लग गया। उससे किसी ने पूछा"तुम तो ग्रेजुएट हो, कहीं प्रोफेसर बन जाते या अन्य किसी सरकारी नौकरी में लग जाते, यह बाल काटने का धंधा क्यों अपनाया ?" उसने बड़े गर्व के साथ कहा- "मैं अपने पैतृक धंधे से पूर्ण सन्तुष्ट हूँ इसमें आय कम नहीं है। मुझे अपने बाप-दादों के धंधे में शर्म कैसी ? लज्जा तो उसे आनी चाहिए, जो चोरी करता हो, कार्य से जी चुराता हो।"
भारत के अधिकांश बेकार एवं बेरोजगार लोग वे नहीं हैं जो स्वयं मजदूरी करते हैं पर वे हैं जो पढ़े-लिखे हैं मेहनत, मजदूरी नहीं करना चाहते; और अधिकतर ऐसे लोग ही चोरी का पेशा अपनाते हैं। कई ऐसे भी मिलेंगे जो अनपढ़ हैं, किन्तु शारीरिक श्रम से कतराते हैं, ऐसे लोग भी चोरी जैसा अनैतिक व्यवसाय अपना लेते हैं।
चोरी का तीसरा बाह्य कारण है- फिजूलखर्ची । प्रायः देखा जाता है कि मध्यमवर्गीय परिवरों में खर्च तो अधिक है, आमदनी कम । विवाह आदि की सभी रूढ़ियाँ वे धनवानों, उच्चवर्गीय परिवारों के अनुसार करना चाहते हैं, परन्तु आय इतनी नहीं है कि वे नैतिक व्यवसाय से यह सब कर सकें। अतः वे सभ्य चोरी अपनाते हैं या अन्य अनैतिक धंधे, तिकड़मबाजी करके धन कमाने के उपाय आजमाते हैं। अपनी आय के अनुसार व्यय करने वाले को चोरी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
चोरी का चौथा कारण है आवश्यकताओं में वृद्धि । प्रायः देखा जाता है कि लोग अपना कृत्रिम स्टैंडर्ड बढ़ाने के लिए आवश्यकताएँ बहुत बढ़ा लेते हैं। परिवार के लोगों का जीवन भी उसी साँचे में ढालते हैं। अधिक खर्चीले जीवन के अभ्यस्त लोग उस खर्चे की पूर्ति नैतिक धंधे से नहीं कर पाते । तब वे चोरी जैसे अनैतिक कामों को अपनाते हैं। अगर पहले से ही अपनी आवश्यकताओं में कटौती की जाय तो उन्हें स्वाभाविक रूप से सात्विक जीवन जीने का आनन्द आजाए और चोरी आदि अनैतिक कृत्यों की ओर झांकना ही न पड़े। कौन-सी अनिवार्य आवश्यकता है, कौन सी कृत्रिम ? इस विषय में व्यक्ति को स्वयं ही निर्णय करना चाहिए। कुछ लोगों की सम्पत्ति जूए में स्वाहा हो जाती है या शराब, अफीम, भंग, गांजा, व्यभिचार, वेश्यागमन आदि दुर्व्यसनों में धन फंक देते हैं तब अभावग्रस्त होकर वे दूसरों के धन पर हाथ साफ करते रहते हैं। यह दुर्व्यसनों की आदत ही उनके जीवन में चोरी के दुर्दिन लाती है और आफत में डालती है।
चोरी का पाँचवाँ बाह्य कारण है-यश कीति या प्रतिष्ठा की भूख । मनुष्य की यह दुर्बलता हे कि वह झूठी क्षणिक वाहवाही नामवरी या प्रसिद्धि के लिए हजारों रुपये प्रदर्शन, आडम्बर, गाजे-बाजे, दिखावे आदि में फूक देते हैं। उस समय वह अपने आय व्यय को नहीं देखता। इस प्रकार की मिथ्या प्रसिद्धि के चक्कर में पड़कर धन फूंक देता है तब वह उसकी पूर्ति चोरी आदि से करता है ।
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