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________________ २०४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ लोगों की शुभकामनाएँ, हार्दिक शुभाशीर्वाद और लोक-बल रहता है । परमार्थ से तो पुरुषार्थ ही प्रकट होता है । संवाद के रूप में एक रूपक प्रस्तुत करता हूँ धरती बोली - " वृक्षो ! मैं तुम्हें खाद-पानी देती हूँ, रस देती हूँ, उससे अपने आपको तृप्त करो, पुष्ट करो, किसी को दो मत ।" वक्ष बोला - "नहीं, मां ! मैं देता हूँ, तभी फलता हूँ । मुझे दिये बिना शान्ति नहीं होती ।" वृक्ष ने अपने फल दिये, पत्ते दिये, पथिकों को छाया दी, पक्षियों को बसेरा दिया । वृक्ष पतझड़ में सूख रहा था, तब भी उसकी यही कामना थी कि कोई आये और मेरी सूखी लकड़ियाँ लेजाकर अपना काम चलाये । वसन्त ऋतु आई । प्रकृति से वृक्ष को फूल, पत्ते, फल मिल गये । वृक्ष ने जितना दिया था, उससे अधिक उसे मिला । वह हरा-भरा हो उठा । गंगा नदी हिमालय से चली तो हिमालय ने उसे बहुत रोका कि "तुम यहीं रहो, आगे न बढ़ो, अपना जल यों ही न लुटाओ ।" गंगा ने कहा- "मुझे लोककल्याण के लिये जाना ही पड़ेगा ।" गंगा वहाँ से निकली और प्यासी धरती, सूखी खेती तथा व्याकुल जीव-जन्तुओं को शीतल जल लुटाती हुई आगे बढ़ी तो हिमालय का हृदय स्वतः द्रवित हो उठा । उसने जल उड़ेलना शुरू किया और गंगा जितनी गंगोत्री में थी, गंगासागर में पहुँचते सौगुनी बड़ी होकर जा मिली । निसर्ग का यह नियम है कि जो निरन्तर दान करता है, वह निर्बाध प्राप्त भी करता है । आज का दिया हुआ कल हजार गुना होकर लौटता है । तिथि न गिनो, समय की प्रतीक्षा न करो, विश्वास रखो - आज दोगे तो कल तुम्हें कई गुना मिलेगा । लोकमंगल के लिए जो अपनी क्षमताएँ, सम्पदाएँ दान करते हैं, उनकी क्षमताएँ, सम्पदाएँ, योग्यताएँ, वैभव और विभूतियाँ हजारगुनी अधिक हो जाती हैं । समय भले ही लगता हो, परन्तु दान, त्याग और परोपकारार्थ उत्सर्ग ही जीवन. को महान् और परिपूर्ण बनाता है । स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था -- " अगर तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो तो देने को तैयार हो जाओ । देने में आनन्द है । जो जितना देता हैं, उससे अनेकगुना पाता है । पाने का एक मात्र उपाय यही है कि आप देने को तैयार हों । जो जितना अधिक दे सकेगा, उसे उससे अनेकगुना मिलेगा । इस जगत का यही नियम है । जो इस नियम को जान लेता है, उसे परिपूर्ण तृप्ति पाने की साधन सामग्री मिलती है ।" यदि समुद्र अपना जल बादलों को न दे तो उसे नदियों द्वारा अनन्त जलराशि प्राप्त करते रहने की आशा छोड़ देनी होगी । जो मलत्याग नहीं करना चाहता उसके पेट में तनाव और दर्द बढ़ेगा, उसे नया सुस्वादु भोजन पाने का अवसर नहीं मिलेगा | कुआ अपना जल न दे तो, उसका पानी सड़ जाएगा । इसीलिये कबीर ने कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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