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________________ दरिद्र के लिए दान दुष्कर : २०५ पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढ़ो दाम । दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ।। शालिभद्र अपने पूर्वजन्म में संगम नाम का ग्वाला था। उसकी मां आस-पास के धनिकों के यहाँ का गृहकार्य करने से जो कुछ मिलता, उसी से अपना और बेटे का गुजर-बसर करती थी। एक बार संगम धनिकों के बच्चों से खीर खाने की बात सुनकर मचल पड़ा-खोर खाने के लिए। परन्तु गरीब माता उसे खीर कहाँ से देती । बहुत समझाया, पर उसने तो हठ ही पकड़ ली। उसे रोते देख सेठानियों ने उसकी माँ को खीर की सामग्री दे दी। माता ने खीर बनाने की हंडिया में सब चीजें डालकर चूल्हे पर चढ़ा दी और संगम को कहती गई- 'बेटा ! मैं अब काम पर जाती हूँ। जब खीर सीझ जाए तब उतारकर थाली में ठंडी करके खा लेना ।" संगम ने खीर पकते ही उतारकर ठण्डी करने के लिए थाली में उड़ेल ली । खीर थाली में ठण्डी हो रही थी, तभी एक मासिक उपवासी मुनिवर पारणे के लिए भिक्षार्थ पधारते हुए देखे । संगम की भावना जगी कि मैं भी यह खीर ऐसे तपस्वी मुनि को दे दूं तो कितना अच्छा हो ! बस, मुनिराज को प्रार्थना करके वह ले आया घर पर । थाली में जो खीर थी, वह मुनि के पात्र में उड़ेलने (बहराने) लगा। सोचा, मैं तो फिर खा लूगा, ऐसे तपस्वी मुनि का संयोग फिर कहाँ मिलेगा ? सारी की सारो खीर उसने मुनिराज को प्रबल उल्लास से दे दी। मुनिवर आहार लेकर पधार गए। उसी दान के प्रबल परिणाम के फलस्वरूप राजगृहनगर के सबसे अधिक धनाढ्य गोभद्र सेठ के पुत्र के रूप में उसे जन्म मिला। खीर का क्या मूल्य था ? परन्तु उस गरीब संगम के पास और था ही क्या ? सर्वस्व उसने दे दिया। उसने अपने लिए खीर नहीं रखी। उस नगण्य वस्तु के भी उत्साहपूर्वक दान ने संगम को करोड़पति सेठ का पुत्र बना दिया । शालिभद्र की कथा आप लोग जानते ही हैं । निष्कर्ष यह है कि संगम ने अपने गरीबी को न देखकर केवल थोड़ी सी खीर का दान दिया, बदले में उसने लाखों करोड़ों गुना पाया; शालिभद्र के रूप में। पद्म पुराण में भी स्पष्ट कहा है दानं दरिद्रस्य विभोः क्षमित्वं, यूनां तपो ज्ञानवतां च मौनम् । इच्छानिवृत्तिश्च सुखोचितानां, दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।। अर्थात्-दरिद्र का दान, सामर्थ्यशील की क्षमा, युवकों का तप, ज्ञानियों का मौन, सुखभोग के योग्य पुरुष की स्वेच्छया निवृत्ति, समस्त प्राणियों पर दया-ये सब गुण स्वर्ग में ले जाते हैं। इसीलिए यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि दान से लक्ष्मी के द्वार खुल जाते हैं, लक्ष्मी बढ़ती है। चाणक्यनीति में स्पष्ट कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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